जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-
फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है। सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Friday, September 5, 2008
तेरे इश्क के बहाने
नहीं मिलती तेरी सूरत से किसी की सूरत हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं ।
जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-
जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-
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1 comment:
bahut shukriyaa sunvaney kaa
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