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Saturday, January 10, 2009

पड़ेला झीर झीर बुंदिया......


पिछली पोस्ट पर टिपण्णी करते हुए सिद्धेश्वर भाई ने लिखा था "आप नए साल में मिर्ज़ापुर हो आए.मैं चाहकर भी गाज़ीपुर जा सका! वहाँ और जो भी लाए हों अपने साथ मिर्जापुरी कजरी की उजास जरूर लाए होंगे. क्या ही अच्छा हो कि इस कड़ाके की शीतलहर में लोकसंगीत की लहर बह जाय और डार से बिछुडे मुझ अकिंचन को माटी की महक सुवासित कर दे समय,समाज,स्वार्थ से उपजा कलुष कुछ देर के लिए तिरोहित हो जाए."

कजरी की याद दिला उन्होंने जाने क्या क्या याद दिला दिया. अब क्या कहूं हम डार से बिछुरे दो जिन्दगियां जीते हैं - एक सचमुच में जो है और एक सचमुच में जो थी इस आभासी जीवन के शांत जल में जब कोई पत्थर गिरता है तो यादों की एक दुनिया उमड़ आती है मन के दरवाजे आइये याद करते है उन्ही बरसातों को जब कजरी गई जाती थी

तब बारिस भी खूब टूट कर होती थी इतनी की कपड़े तक नहीं सूख पाते थे. ज्यादा बरसात मतलब स्कूल की छुट्टी मगर हमारे प्राइमरी के हेडमास्टर साहब ज्वाला सिंह जी अपनी ड्यूटी के बड़े पक्के थे अगर बीमार नहीं हैं तो स्कूल जरूर खुलता था और ऐसा तब था जब वे स्कूल से लगभग पाँच किलोमीटर दूर रहते थे और आने के लिए थी केवल मेंड़ की पगडंडी वो तो हमीं लोग छुट्टी मार जाते नतीजा दो तीन दिन बाद मास्टर ख़ुद ही घर धमकाते- अरे भाई बचवा की तबियत तो ठीक है ? फ़िर हमें स्कूल आने की डांट पड़ती और बस खैर वो अलग ही दुनिया के लोग थे अब भी वही स्कूल है . बिल्डिंग पक्की बन गई है मास्टर भी तीन हैंआने जाने को सड़कें भी हैं और साधन भी, बस नहीं है तो पढ़ाई और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी का भाव

छोडिये इस बात को फ़िर चलते है बरसात की ओर जब झकाझोर बारिस के बाद धूप खिलती तो मस्ती का मौसम होता यही मौसम धान की रोपाई का भी होता था धान रोपती औरतें लगातार कजरी गातीं हमारे यहाँ एक रस्म थी अगर धान की रोपाई के समय उधर से कोई रिश्तेदार या मेहमान गुजरता तो कोई चंचल रोपनहारी उसे मिट्टी लगाती और फ़िर उन साहब को उसे नेग स्वरूप 'माटी लगवाई' कुछ मुद्रा देनी पड़ती अरे घबराईये नहीं! मिटटी बस पाँव के अंगूठे पर लगाई जाती थी अगर आप शराफत से लगवा लें अब यह परम्परा भी नहीं रही मजदूर दूर-दराज से आते हैं उन्हें स्थानीय परम्पराओं से कुछ लेना देना नहीं होता और खुशी खुशी मिट्टी लगवाने वाले भी नहीं रहे

बात कहाँ से कहाँ पहुँच जा रही है इसी मौसम में नाग-पंचमी को खूब खेलकूद होता, कुश्ती के दंगल होते कूरी डाकते (मिट्टी का हांथ भर उंचा ढेर बना कर दौड़ते हुए उस पर से लम्बी कूद लगाना) और कबड्डी खेलते झूले पड़ जाते जिसके लिए मदद करने के एवाज़ हमें भी पींगें मारने का मौका मिल जाता झूलानाहारियाँ खूब कजरी गातीं

इसी मौसम में कृष्ण जन्माष्टमी को मडिहान थाने में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव खूब धूमधाम से मनाया जाता और उस रात बिरहा का दंगल होता दूर दूर से लोग बिरहा सुनाने आते अगर कहीं मुकाबला हीरा और बुल्लू का हुआ फ़िर तो कहना ही क्या जबरदस्त भीड़ होती वे दोनों गायक ही ऐसे थे विशेष रूप से हीरा लाल यादव मेरी राय में वे भोजपुरी के सर्वश्रेष्ठ लोकगायक हैं कोई लटके-झटके, कोई फूहड़ता मंच पर खड़े हो दोनों हाथों में करताल ले जब वे लोक संगीत का जादू रचते आसपास की किसी चीज की ख़बर रह जाती करताल खड़ताल से अलग लोहे के चार भारी टुकडों से बना वाद्य है जो कैसे इतनी आसानी से बजाया जाता है मेरी समझ में अब तक नहीं आया इसे मुख्य गायक ही बजाता था और कुछ कुछ तो इन्हे बजाते बजाते हवा में उछाल देते थे जब भी आकाशवाणी से हीरा लाल यादव के लोकगीत प्रसारित होते, रेडियो के आस पास मौजूद गावं के लोगों की तन्मयता देखते बनती उनकी मंडली में ढोल छन्नूलाल यादव बजाते थे जो दृष्टिहीन थे और स्वयं भी अच्छे गायक थे अब इन गायकों का संगीत बाजार में उपलब्ध नहीं है कम से कम मुझे तो नहीं मिल पाया आइये पहले हीरा लाल यादव और साथियों से यह कजरी सुनते हैं फ़िर गिरिजा देवी आवाज़ में कजरी और अंत में बिस्मिल्ला खां साहब की बजाई कजरी धुन अब गिरिजा देवी जी के गायन और बिस्मिल्ला खां साहब के वादन के बारे में कुछ कहना बस छोटे मुहं बड़ी बात होगी आइये आनंद लें......

कहवाँ से आवें कुंवर कन्हैया ......

बरसे कारी रे बदरिया .......

कजरी धुन .......

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