आज आप के लिए पेश हैं दो कवितायें - पहली मैथिली कविता जिसका अनुवाद स्वयं कवि ने किया है और दूसरी राजस्थानी कविता जिसका अनुवाद किया है नीरज दईया ने। ये कवितायें लगभग १५-२० साल पहले छपी थीं।
अनरुध नदी नहीं उलौंघता
(जीव कान्त)
अनरुध के पास एक झोपड़ी है
एक घरनी
एक छोटा सा बच्चा
बच्चे के लिए लाएगा अमरूद
घरनी के लिए पाव भर शकरकंद
झोपड़ी के सामने बंधे बाछे के लिए
लाएगा एक टोकरी घास
थोड़ी सी डूब की लत्तरें.....
अनरुध सूर्य के साथ उठता है
गाँव की नदी की ओर भागता है
अनरुध नदी नहीं उलान्घता
मानो तीनों लोक हैं उसके लिए
उस की पर्णकुटी
और उसकी पत्नी
और उसका बच्चा
और खूंटे से बंधा हुआ बाछा
अनरुध सारी दुनिया का चक्कर नहीं लगाएगा
उसका पूरा संसार है
झोपड़ी से नदी तक
पर्णकुटी की परिक्रमा करेगा वह नृत्य के छंद में
अनरुध मानो तीनो लोक
घूम लेगा।
कविता
(मोहन आलोक)
कविता कोई पत्थर नहीं है
कि आप मारें
और सामने वाला हाथ ऊँचे कर दे
साफ़ा उतारे
और आप के पैरों में
रख दे।
कविता का असर
तन पर नहीं
मन पर होता है
मन की जंग लगी तलवार को
यह
पानी दे-दे कर धार देती है
उसे धो-पोंछ कर
नए संस्कार देती है
यह व़क्त के घोड़ों को लगाम
और सवारों के लिए
काठी का बंदोबस्त करती है
यह हथेली पर
सरसों नहीं उगाती
बल्कि उसे उगाने के लिए
ज़मीन का बंदोबस्त करती है।
फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है। सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Saturday, January 23, 2010
Thursday, January 14, 2010
वीडियो मौत
पुरानी पत्रिकाएं पलटते समय यह कविता एक बार फिर पढ़ने को मिली और कही भीतर तक छू गयी। के. अय्यप्पा पनिक्कर की एक मलयालम कविता जिसका यह अनुवाद १५ वर्ष पहले छापा था -मलयालम से अनुवाद किया था रति सक्सेना ने-
दीदी ! क्या अमेरिका से 'फोक्स' आया ?
'फोक्स' लोमड़ी ? देखती हूँ क्लिंटन है या कोई और।
अरे नहीं, क्लिंटन भैया को तो जानती हूँ,
वो कुछ टेलीग्राम जैसा होता है न!
अच्छा-अच्छा देखती हूँ ।
ये भाई का लेटर है .......... लो पढ़ लो।
'माई डियर सरो,
हमारी मदर कुछ सीरियस हैं,
लेकिन बूँदाबाँदी हो रही है,
अमेरिका की बूँदाबाँदी -
तुम क्या समझ पाओगी,
इसीलिये तो घर नहीं अ पा रहा।
मदर की मौत का वीडियो जरूर भेजना।
आख़िरी सांस से ले कर हमारे सारे क्रिया-करम,
'फ्यूनरल' फ्रेंड्स को बहुत पसंद है।
इन्डियन मैरिज, वेडिंग रिसेप्शन, सुहागरात,
हनीमून, डायवोर्स, सती-- सभी देख चुके हैं,
साँस उखड़ने के बाद के क्रिया-करम,
जैसे शव को नहलाना, नया कपड़ा ओढाना,
चावल मुँह में डालना, बलि,
जलती चिता, हँडिया फूटना आदि
देख नहीं पाए हैं।
इसलिए ये भी देखना चाहते हैं।
देखो 'ब्लैक एंड ह्वाईट' और 'कलर'
अलग-अलग लेना।
मर्लिन 'ब्लैक एंड ह्वाईट' पसंद करती है,
पर जैक्लिन का कहना है कि
कलर के बिना 'चिता-फिल्म' में मज़ा ही क्या?
वीडियो वाले को पहले से ही बुक कर लेना,
वीडियो समय पर नहीं मिला या-
अम्मा धोखा दे गई -- ऐसा मत कहना,
अच्छा कैसेट चाहिए तो यहीं से भेज दूंगा,
बरसात नहीं होती तो मैं ही आ जाता,
कैसेट बढ़िया बनाना चाहिए,
बहुतों को दिखाना है।
'डी लास्ट मोमेंट्स ऑफ एन इन्डियन मदर'
यही टाइटिल ठीक रहेगा,
शादी का वीडियो है ऐसा कन्फ्यूज़न नहीं होना चाहिए।
ग़मी में आये लोगों के चहरे पर भी
कैमरा घुमा देना,
क्रिसमस पर सभी दोस्त आयेंगे--
वीडियो देखने,
उससे पहले ही भेजना।
शेष फिर--वीडियो मिलाने पर,
अम्मा को भी ज़रा एडजस्ट करने को कहना,
क्रिसमस से पहले ही.........
बूँदाबाँदी की बात अम्मा को भी बता देना
टेक केयर !
(कवि की तस्वीर इन्टरनेट से साभार)
Tuesday, January 5, 2010
दुआ करो के ये पौधा सदा हरा ही रहे....
पिछले काफी समय से कुछ लिखना नहीं हुआ। बस ब्लॉग दुनिया के चक्कर लगा कर चला जाता था। एक दिन मन हुआ कि चलो अपने पसंदीदा कुछ ब्लाग्स के अलावा भी देखें कि क्या हो रहा है... पर क्या कहूं... वो बिज़लियाँ गिरी के ख़ुदा याद आ गया। इतनी गन्दगी, इतनी बकवास। लोगों के पास कहाँ की फुरसत है इतने व्यर्थ लेखन के लिए। और फिर बात मुर्खता और विचारहीनता तक होती तो भी ..... यहाँ तो सामान्य शिष्टाचार और सभ्यता तक भाई लोगों ने ताक़ पर रख दी है। कोई एकाध होते तो कोई ख़ास बात न थी यहाँ तो हूजूम का हुजूम है. इस नयी और सर्व-सुलभ विधा का हिन्दी में ऐसा दुरपयोग गंभीर चिंता का बिषय है. फिर नए साल के पहले दिन ही सिद्धेश्वर जी ने फोन किया। उनकी भी यही चिंता। उनसे तो मैंने उस दिन कह दिया था कि सब ठीक हो जाएगा। पर क्या सचमुच?
ब्लोगिंग की सुविधा हमारे लिए वरदान से कम नहीं है। कुछ सार्थक लिखना और फिर उसे मुद्रित रूप में पाठकों तक पहुचाना हमेशा एक कठिन कार्य रहा है . अब जब अधिकाँश साहित्यिक पात्र-पत्रिकाएं जब या तो बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर हैं, ब्लॉग के रूप में तकनीक ने हमें एक सशक्त माध्यम दिया है अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का। किन्तु लगता है भाई लोग इसे भी मछली बाज़ार बनाने पर तुले हैं। सड़क के झगड़े ब्लोग्स तक आ गए हैं। न कोई भाषा की मर्यादा न विचार की। अन्यथा न लें मई भाषा में अभिजात्य का हामी नहीं पर... यह तो सड़क की भाषा नहीं गटर की भाषा है। उसी तरह बदबूदार और सड़ी हुई।
ध्यान रखिये माध्यम अच्छा या खराब नहीं होता उसका उपयोग अच्छा या बुरा होता है। ऐसा न हो कि ब्लोगिंग एक दिन अभिव्यक्ति और संवाद के सशक्त और सर्व-सुलभ यन्त्र की बजाय गाली गलौझ और एक दूसरे पर कीचड उछालने का माध्यम बन कर रह जाय। मैं निराश नहीं हूँ । पर अभी तो शुरुआत है हिन्दी में ब्लोगिंग की और अभी से ये आलम है..... तो आगे क्या होगा ?
अर्थशास्त्र में ग्रेशम का नियम है- खोटे सिक्के अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं। और यह नियम अर्थशास्त्र में ही नहीं थोड़े बहुत अंतर से जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। साहित्य में काफी कुछ हम इस नियम का असर देख चुके हैं. मैं यह नहीं कह रहा कि अच्छा साहित्य लिखा या पढ़ा नहीं जा रहा पर कितना लिखा और ख़ास तौर से कितना पढ़ा जा रहा है यह किसी से छिपी बात नहीं है. इसलिए कम से कम ब्लॉग जगत में इसतरह के भाषाई खर-पतवार को अभी से न पनपने देने की जरूरत है। ताकि कम से कम यहाँ पढ़ने और लिखने वालों का उत्साह और ऊर्जा बनी रहे. आइये नए साल में अच्छी और सार्थक ब्लोगिंग का मिल कर प्रयास करे।
चर्चा आप आगे बढ़ाइए... तब तक आइये सुनते हैं एक बार फिर मेरे प्रिय गायक वडाली बंधुओं को और बाबा बुल्ले शाह के साथ विचारते है शाश्वत प्रश्न - 'मैं कौन?'.....
(चित्र इन्टरनेट से साभार )
Friday, January 1, 2010
शुभकामनाएं....
इस अवधि में यद्यपि ब्लॉग जगत में आना कम हुआ पर जब भी आना हुआ कुछ नया लेकर गया, कुछ ताजादम हो कर गया। खैर अब नियमित होने की कोशिश करूगा। अगर काम ने मोहलत दी और आलस ने नहीं दबोचा।
भाई सिद्धेश्वर जी का बहुत बहुत आभार । इस लम्बी अनुपस्थिति में आत्मीयता से याद करने के लिए। आप जैसे मित्र मिलना मेरी ब्लागिंग की उपलब्धि है।
इस दौरान पड़ना लिखना कम हुआ पर सुना काफी कुछ। जिस एक ग़ज़ल को बार बार बहुत सुना उसे आप सब को भी सुनवाता हूँ................ एक बार फिर उस्ताद मेहंदी हसन साहब...... क्या गायकी है ... मैं तो बस अभिभूत हूँ............
एक बार फिर सभी दोस्तों को सपरिवार नए वर्ष की मंगल कामनाये।
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