जगजीत सिंह की आवाज़ हो तो ग़ज़ल का सुरूर और बढ़ जाता है। एक पीढी उनकी गज़लें सुनते हुए बड़ी हुई है। मगर वे आज की पीढ़ी में भी उतने ही मकबूल हैं जितने की हमारी। उनकी मखमली आवाज़ का जादू अब तक न जाने कितनो को दीवाना बना चुका है। आज मैं आपको उनकी एक पुरानी ग़ज़ल सुनवाता हूँ। खामोश देहलवी की इस ग़ज़ल को जगजीत जी ने बड़े मूड से गाया है। लीजिए हाज़िर है -
उम्र जलवों में बसर हो ये ज़रूरीतो नहीं
हर शबे-ग़म की सहर हो ये ज़रूरीतो नहीं।
चश्मेसाकी से पियो या लबे सागर से पियो ,
बेखुदी आठो पहर हो ये जरुरी तो नहीं।
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
शेख करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज़दे,
उसके सज़दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
सब की नज़रों में हो साकी ये ज़रूरी है मगर ,
सब पे साकी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं।
हर शबे-ग़म की सहर हो ये ज़रूरीतो नहीं।
चश्मेसाकी से पियो या लबे सागर से पियो ,
बेखुदी आठो पहर हो ये जरुरी तो नहीं।
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
शेख करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज़दे,
उसके सज़दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
सब की नज़रों में हो साकी ये ज़रूरी है मगर ,
सब पे साकी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं।
6 comments:
शुक्रिया !! यह मेरी भी पसंदीदा गजलों मे से हैं !
आभार इस गजल के लिए.
मुझे भी बेहद पसंद रही है ये...यहाँ फिर सुनवाने का शुक्रिया
उम्र जलवों में बशर हो ऐ जरूरी तो नहीं
हर शबेगम की सहर हो ऐ जरुरी तो नहीं।
दद्दू
ये बशर को बसर,
जरूरी को ज़रूरी
शबेगम मो शबेग़म
और ऐ को ये
कर दो ना पलीज (प्लीज़)
dhanyavaad baba
इसका संगीत संयोजन और पार्श्व में बजते वाद्यों ने इसे और भी कर्णप्रिय बना दिया है...
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