Friday, September 5, 2008

तेरे इश्क के बहाने

नहीं मिलती तेरी सूरत से किसी की सूरत हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं

जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-


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