Tuesday, July 21, 2009

मेरे किस्से मेरे यारों को सुनाता क्या है....


आइये आज हैं गु़लाम अली साहब को। अस्सी के दशक में जब गज़लें सुनने (और सुनाने का भी) जूनून सा था तब जिन गायकों को सुन एक मदहोशी की सी स्थिति रहती थी उन में एक नाम गुलाम अली का भी है। उस्ताद मेहंदी हसन, जगजीत सिंह और गु़लाम अली इन तीन गायकों की ग़ज़लों का खुमार अभी तक उतरा नहीं हैहमारे बनने और बिगड़ने में ये उस्ताद लोग बराबर के शरीक रहे हैं । उस जमाने में 'निकाह' फ़िल्म में बजाई गई हसरत मोहानी साहब की ग़ज़ल चुपके-चुपके का तो खैर कहना ही क्या। 'हंगामा है क्यों बरपा ', 'दिल में एक लहर सी उठी है अभी', 'अपनी धुन में रहता हूँ' और कितनी मुद्दत बाद मिले हो' हमेशा मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़लों में हैं। वैसे तो यह लिस्ट बहुत लम्बी है। मुझे पंजाबी ज्यादा समझ नहीं आती पर गुलाम अली के गाये कुछ पंजाबी गीत भी मुझे बहुत पसंद हैं जैसे 'नि चम्बे दिए बंद कलिए...। आज सुनते है इस गायक की सदाबहार गायकी के दो श्रेष्ठ उदाहरण-

कहते है मुझसे...


बेशक जाणा....


Sunday, June 7, 2009

मैं बेकल ज़र्रा सहरा का, तू रहमत का दरिया साइयां........


आज लगभग महीने भर बाद आप से मुखातिब हूँकुछ व्यस्तता और कुछ आलस्यतो फ़िर आइये आज इस खामोशी को तोड़ते है आबिदा जी की आवाज़ सेलेकिन इस रस गंगा के पान से पहले आबिदा जी के बारे में यह आलेख-

The uncrowned Sufi Queen

Pakistani singer Abida Parveen´s truly amazing voice has earned her the status as heir to the crown of the late Qawwali legend Nusrat Fateh Ali Khan. Though not as immediate as the surging ecstasies of the big Qawwali ensembles, her intimate, charged music offers much to those prepared to give themselves over to it.
"Parveen could sing a shopping list and have an audience weeping", wrote BBC´s Peter Marsh when Abida Parveen´s album ´Visal´ was released in 2002.

Abida Parveen is known for the dazzling quality of her voice and her vivid musical imagination allied to her utterly feminine sensibility, all used to tell the Beloved the states His love makes us endure.

A real cult is now devoted to Abida, proof indeed of the way this immense artist gives herself over entirely to her public in her music; so long as they demand it, she is ready to go on giving the best of her gifts to serve the kalam (the Word) of the Sufi saints. Sometimes she will linger on a low note, sometimes she´ll rise to dizzy heights with oval ornaments of dazzling virtuosity; she seems to be in a state of ecstatic communion with her audience, inspired by an energy coming directly from Him whose praises she sings.

Very few Westerners understand the texts. Parveen sings about love of the only one, and the wish to be united with this divine creature. But she interprets the Sufi poetry with a clear diction and a gentle, often melancholy presence which makes the message go right in.

Abida Parveen gets her material from the old texts of the Sufi poets and herself composes the music, which is as richly ornamented as the warm voice embracing the stanzas. The ancient, soulful strains of Sufi music can some day unite the sparring neighbours India and Pakistan, says Abida Parveen in an interview in Indo-Asian News Service, April 2003:

"With the two countries sharing so much common cultural and traditional legacy, peace will prevail one day. Sufi music will have a role in unifying them".

The Sufi movement created a rich composite culture blending Islamic and indigenous cultures during Mughal rule in the Indian subcontinent. The movement was reflected in art, music, religion and philosophy. The Sufi movement coupled with the Bhakti movement opposed religious orthodoxy and caste and creed divisions and gave India such saints as Kabir, Namdev and Baba Sheikh Farid.

"The basic tenet of Sufism is the same: love for god and your fellow brethren," says Parveen: "In different areas, different saints propagated this one message using the idiom of that area and its traditional music so the masses could understand. Once you understand the message, you will realise that basically we are all the same."

"Music transcends the barriers of language, culture and creed. Even if an Englishman who doesn´t understand the words listens to Sufi music, it will transport him to ecstasy," she says.

Indeed Parveen´s music has a power to communicate across racial and denominational divides।

Author: Karin Bergquist

(इन्टरनेट से साभार)
तूने तो निगाहें फेरी हैं...............



Wednesday, May 6, 2009

मेरे नसीब में मेरी अना को ज़िंदा लिख........

आज पढ़ते हैं उर्दू के आधुनिक शायर अमीर आगा़ कज़लबाश की कुछ मेरी पसंदीदा गज़लेंअमीर की शायरी आज की जिंदगी की शायरी हैउसमें जहाँ हमारे दुःख दर्द मौजूद हैं वहीं निजता की पहचान भी हैइस 'तेज रफ़्तार मुसाफिर' की दो गज़लें आपकी नज़र हैं-

मेरे नसीब में मेरी अना1 को ज़िंदा लिख
कभी न टूट सके मुझ से मेरा रिश्ता लिख

बिखरते - टूटते रिश्तों की पासदारी कर
और अपने आपको अपने लिए पराया लिख

ये तेरी आख़िरी साँसें है कुछ तो मुंह से बोल
अजीम शख्स कोई आख़िरी तमन्ना लिख

किसी के जिस्म पे चेहरा नज़र नहीं आता
हजूम शहर की बेचेहरगी का नोहा लिख

यह राह आग के दरिया की सिम्त जाती है
क़दम बढाते हुए राहरौ को अंधा लिख

उदास शाम की दहलीज़ पर चरागाँ कर
नहीं है क़िस्मते इमरोज़ में सवेरा लिख

****************************************

ज़ुल्मत के तलातुम २ से उभर क्यों नहीं जाते
उतारा हुआ दरिया है गुज़र क्यों नहीं जाते

बादल हो तो बरसों कभी बेआब ज़मीन पर
खुशबू हो अगर तुम तो बिखर क्यों नहीं जाते

जब डूब ही जाने का यकीं है तो न जाने
ये लोग सफी़नों से उतर क्यों नहीं जाते

रोकेगी दरख्तों की घनी छावं सरे राह
आवाज़ सी आयेगी ठहर क्यों नहीं जाते

अब अपने ही साए के तआकुब 3 में निकल जाओ
जीने की तमन्ना है तो मर क्यों नहीं जाते

तू राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यों नहीं जाते

हर बार हमीं हैं हदफ़े-संगे-मलामत4
इल्जाम किसी और के सर क्यों नहीं जाते


१=आत्मसम्मान २= उथल पुथल ३= पीछा करना ४= दोषारोपण के पत्थरों के निशाने पर

Sunday, April 26, 2009

काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़.....


आइये आज फ़िर जिक्र करें महान शायर फ़िराक गोरखपुरी साहब का। यह उस शायर का जिक्र है जो हजार खराबियों के बाद भी जिंदगी को खुल्दे-बरीं पर तरजीह देता है। जो जिंदगी का शायर है, विवेक का शायर है। जो प्रेम को शारीरिक रति मात्र से निकाल कर उस बौधिक धरातल पर ले जाता है जहाँ भाव और विचार एकमेव हो जाते हैं। फ़िराक का प्रेम एक कोरी भावुकता नहीं एक विवेकशील अनुभूति है । उनकी शायरी केवल आह-आह और वाह-वाह की कविता नहीं बल्कि जीवन और समाज को गहरे तक रेखांकित करती है । पेश हैं फ़िराक के कुछ शे'र-

हिन्दी के एक लोकगीत के बोल है -

जल मा चमके उजारी मछरिया, रन चमके तरवार,
सभा में चमके मोरे सैयां की पगडिया, सेजिया पे बिंदिया हमार।

फ़िराक साहब ने इसी ले में एक नज़्म कही है -तराना--इश्क ---

जलवा-ए-गुल को बुलबुल बहुत है शमा को गिरा-ए-शाम
बाड़े-बहारी गुल को बहुत है मुझ को तेरा नाम ।

बिजली चमके काली घटा में जाम में आतशे-सर्द
चमके राख जोगी की जता में मुझमें तेरा दर्द।

शाख पर शोल-ए-गुल की लपक हो चर्ख प अन्जुमो-माह
दुनिया पर सूरज की चमक हो मुझ पर तेरी निगाह।

*********************************

बस इक सितारा-ए-शंगर्फ़1 की जबीं प झमक
वो चाल जिससे लबालब गुलाबियाँ छलकें
सुकूं नुमा खमे-आबरू ये अधखुली पलकें
हर इक निगाह से ऐमन की बिजलियाँ लपके
ये आँख जिसमें कई आशमा दिखाई पड़ें
उड़ा दे होश वो कानों की सादा सादा लावें
घतायं वज्द में आयें ये गेसुओं की लटक !

ये कैफों-रंग नज़ारा ये बिजलियों की लपक
कि जैसे कृष्ण से राधा कि आँख इशारे करे
वो शोख इशारे कि रब्बानियत2 भी जाए झपक
जमाल सर से कदम तक तमाम शोला है
सुकूनो-जुम्बिशो-रम तक तमाम शोला है
मगर वो शोला कि आंखों में दाल दे ठंडक।

***********************************

है अभी माहताब बाक़ी और बाक़ी है शराब
और बाक़ी तेरे मेरे दरम्याँ सदहा3 हिसाब।

दिल में यूँ बेदार4 होते है ख़यालाते-ग़ज़ल
आँख मलते जिस तरह उट्ठे कोई मस्ते-शबाब।

चूड़ियाँ बजती है दिल में, मरहबा5, वज़्मे-ख़याल
खिलते जाते हैं निगाहों में जबीनों6 के गुलाब।

काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़
अहले-दिल भी तो हैं ऐ शैखे-ज़माँ , अहले-किताब।

एक आलम पर नहीं रहती हैं कैफ़ीयाते-इश्क़
गाह रेगिस्ताँ भी दरिया, गाह दरिया भी सुराब7।

आ रहा है नाज़ से सिम्ते-चमन को खशखिराम8
दोश पर वो गेशू-ऐ-शबगूं9 के मंडलाते साहब10।

हुस्न ख़ुद अपना नकीब, आंखों को देता है पयाम
आमद-आमद आफ़ताब, आमद दलीले-आफ़ताब।

अज़मते- तक़दीर-आदम अहले-मज़हब से न पूछ
जो मशिअत ने न देखे, दिल ने वो देखे हैं ख़ाब।

हर नज़र जलवा है हर जलवा नज़र, हैरान हूँ
आज किस बैतुलहरम11 में हो गया हूँ बारयाब12।

सर से पा तक हुस्न है साजे-नमू13 राज़-नमू14
आ रहा है एक कमसिन पर दबे पावों शबाब।

ऐ 'फ़िराक' उठती हैहैरत को निगाहें बा अदब
अपने दिल कि खिलावातों में हो रहा हूँ बारयाब।

= लाल सितारा, = ईश्वरत्व , = सैकड़ों, = जाग्रत, = धन्य हो, = माथा, = मृगत्रिष्णा, = अच्छी चाल वाला, = रात की तरह बाल वाला, १०= बादल, ११= अल्लाह का घर, १२= प्रवेश प्राप्त, १३= उत्पन्न गीत , १४= उत्पत्ति का मर्म,
(पेंटिंग -बाबा शोभा सिंह)

अब पेश है जगजीत और चित्रा सिंह की आवाज़ में यह ग़ज़ल-


Sunday, April 19, 2009

प्रेम की कविता के गायक.....


सूफ़ी कविता प्रेम की कविता है और अगर गायक नुसरत जैसा हो तो इस प्रेम कविता को चार चाँद लग जाते है। रूह की जिन गहराइयों को से सूफ़ी कविता निकलती है उन्ही गहराइयों को प्रतिध्वनित करता है बाबा नुसरत का गायन। उनके गायन में एक सम्मोहन सा है और वे ख़ुद भी किसी सम्मोहन में गाते हुए लगते हैं। ऐसी तल्लीनता शायद ही किसी और गायक में मिले। उनके भतीजे और शिष्य राहत नुसरत फतह अली खान , जिन्हें बाबा नुसरत ने १२ साल की उम्र में ही अपनी शागिर्दी में ले लिया था, को भी उनका यह गुन विरासत में मिला है। (यद्यपि आज कल वे कुछ भटक गए से लगते हैं)। आइये आज इन्ही महान गुरु और उसके योग्य शिष्य का गायन सुनते है। पहले बड़े खान साहब की आवाज़ में 'नित खैर मँगा तेरे दम दी....' फ़िर राहत की आवाज़ में ' सानू एक पल चैन न आवे....'





Sunday, April 5, 2009

यूँ ही पहलू में बैठे रहो ...



आज बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ, इसके लिए सभी दोस्तों से माफ़ी चाहूंगा। वही रोजगार के गम। खैर इस दौरान आप लोगों को पढ़ता-सुनता जरूर रहा हूँ बस कुछ लिखना नहीं हो पाया।

आइये आज सुनते हैं फ़रीदा खानम को। कुछ गज़ले गायक की पहचान बन जाती हैं। ऐसी ही ग़ज़ल है - आज जाने की जिद ना करो... इस ग़ज़ल को फ़रीदा जी ने इस अंदाज़ से गाया है की उनका नाम लेते ही इस गज़ल की याद आती है और इस गज़ल का जिक्र छिड़ते ही फ़रीदा जी की। तो फ़िर आज सुनते हैं इनकी गायी ये ग़ज़ल -




Saturday, March 7, 2009

मोरा फागुन में जियरा बहके.....


अब आप कहोगे कि भाई फागुन में तो सब का मन बहका रहता है इसमें नई बात क्या है। नई नहीं है तो क्या बात नहीं करने देंगे। अरे भईया विजया बूटी के संग ठंढई का एक लोटा जमाओ तब समझ में आयेगा बहकने और बहकने का फर्क। अब मैं यह पोस्ट तो इस बहक में नहीं लिख रहा हूँ यह आप जानो। कहते हैं कि पुरानी दारू का नशा ज्यादा होता है। पता नहीं कौन सी दारू का उसका जो बोतल में पड़ी रहती है या उसका जो इतने सालों से खून में मिले मिले पुरानी हो रही है। इस बारे में कबाड़ी अशोक भाई कुछ बताएं या फ़िर कभी कभी आने वाले मयखाने वाले मुनीश भाई। सिद्धेश्वर भाई तो पहले से ही अलसाए हुए हैं। मित्र अनिल यादव जरूर राजनीति और माफिया के प्रेम प्रसंग को देख कुछ नाराज लग रहे हैं। भाई आज एक गोला लो शिव भोले के नाम सब ठीक हो जायेगा। एक दिन एसा आयेगा जब न ये माफिया रहेंगे और न उनके राजनैतिक आका। बस हम आप रहेंगे और हमारा देश रहेगा। ..... कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी... । हाँ गाना सुनके टिपिया जरूर देना।

अरे मैं भी कहाँ बहक गया। खैर अब अनुनाद वाले शिरीष भाई जैसा गंभीर तो नहीं ही हूँ। अब यार कोई होली कि कविता लिखो तो पढें भी। आज कल वैस भी दफ्तर में गंभीरता का अड्डा बना हुआ है। लेकिन होली की कविता लिखोगे भी तो यहाँ छापोगे कैसे गुरु। मीत भाई की तरह वफ़ा कर के रुसवा हो जाओगे । हराकोना वाले रविन्द्र व्यास जी तो हर मौसम में रंगों से ही खेलते रहते हैं पता नहीं कभी भंग मिलाई है रंगों में अथवा नहीं वैसे पता नहीं रंग में भंग वाला मुहावरा कैसे बन गया और रंगों में और शुरूर आने की बजाय मामला उलटा हो जाता है इस बारे में शब्दों का सफर वाले शब्दशास्त्री अजीत वडनेकर शायद कुछ प्रकाश दाल सकें- बिना भंग पिए.....

सुना कांग्रेसियों ने स्लमडाग करोड़पति को आस्कर मिलने का श्रेय ख़ुद को दिया है। धन्य हो भईया आपलोग । आप ही की किरपा से तो शहर शहर स्लम उग रहा है। आगे और आस्कर मिलेंगे। (जैसे मल्तीनेशनल्स के आने के साथ एक दम से अपने देश में विश्व-सुंदरियां पैदा होने लगीं थी वैसे ही वार्नर ब्रदर्स और सोनी मोशन पिक्चर्स के आने के साथ आस्कर भी आयेंगे। भाई बात धंधे की है।) और सुना 'जय हो' गाना भी खरीद लिया। अरे आडवानी बाऊ जी कहाँ सो रहें हो, आप भी कुछ ले आओ भारत उदय जैसा। गुरु जो लोगों खुबई तमाशा कर रहें हो। चलो जनता भी ऐसी होली खेलेगी कि चकराते रह जाओगे।राजनीति की बात चली तो लालू जी याद गए यारों रेलवे का जो विकास हुआ है वह तो किसी भी स्टेशन पर देखा जा सकता है असली असर तो अमेरिका पर हुआ भईया ने हावर्ड वालों को शिक्षा क्या दी बन्दों ने अमेरिका को भी लालू जी के समय वाला बिहार बना डाला साधुवाद.... साधुवाद अरे भाई साधुवाद कह रहा हूँ साधूवाद नहीं

अमां भाई लोगों यह होली भी गज़ब चीज है। दारू से दल दल तक पहुँच गया। अरे मतलब दल से है - कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा जैसे दल। यह सब लगता है शिव जी के प्रसाद का कमाल है। अब आप माने न माने मुझे तो शिव जी सबसे बड़े समाजवादी लगते हैं। यहाँ कोई बड़ा छोटा, उंच नीच नही।भूत - प्रेत, वैताल सब बराबर , बिल्कुल हमारी संसद जैसे। बस सोमनाथ दा कभी कभी इस समाजवाद की खटिया उलटते रहते हैं। क्या करोगे सठिया गए हैं।

अब सठियाने का क्या करेंगे। हमारे गावं में एक बुजुर्ग थे - होली में खूब फाग गाते- फागुन में बब्बा देवर लागें... फागुन में पर हाय री किस्मत कभी किसी भाभी की नज़ारे इनायत नहीं हुई। वैस होली में जितना आनंद होली खेलने का होता था होली जलाने का उससे कुछ कम नहीं था। 'था' इस लिए की बहुत दिनों से न होली बढ़ाई है और न जलाई । बस जा कर आग तापने जैसा कुछ कर आते है। बहुत दिनों से मार्च के कारण गावं जो ज़ाना नहीं हो पाया। और वहाँ भी सुना है सामाजिक समरसता ने अपना पूरा रंग दिखाया है तीन जगह होली जलने लगी है और लोग अब होली खेलने किसी और के घर ज़ाना अपनी तौहीन समझते हैं। सब भोले की माया है।

होली आई है तो मुझे अपने एक वरिष्ठ मित्र की याद हो आई। एक बार होली के बाद गावं से लौटते हुए होली गीतों का एक कैसेट लेता आया था। भाई साहब को वह कैसेट भा गया। कैसेट को उसका सही कद्रदान मिल गया था। उन्होंने उस कैसेट का एक गीत न जाने कितनी बार सुना और न जाने कितने मित्रों को सुनवाया होगा-- भौजी क मरकहवा कज़रवा सब के दीवाना बनवले बा..... आज भाई आर के सिंह साहब हमारे बीच नहीं है बस उनकी याद हमें हर होली में भिगो जाती है।

अब मौसमों का क्या आते जाते रहेंगे। बस मन से रंग और बूटी का सुरूर न उतरेयही दुआ है । आपकी हर शाम दिवाली और हर सुबह होली हो मयखाने में आपका एक फ्री वाला खाता खुल जाए ( फ़िर प्रमोद मुतालिक से भी निपट लेंगे- लगता है बन्दे को कभी मयस्सर नहीं हुई।). कहा सुना माफ़-- बुरा न मानो होली है।सभी दोस्तों को सपरिवार होली की हार्दिक बधाई।

आइये अब कुछ गाना बजाना हो जाय...







Friday, February 20, 2009

मुझे घेरे लेते हैं बाहोँ के साए.....


एक संगीतकार जिसकी याद आते ही मन में जलतरंग सी बज उठे। जीहाँ मैं जयदेव की बात कर रहा हूँ। वह संगीतकार जिसकी धुनों में भारतीय संगीत अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ बिखरा पडा है। चाहे शास्त्रीय धुनें हों चाहे लोकसंगीत या फ़िर ग़ज़ल हो जयदेव हर जगह अप्रतिम हैं। संगीत का यही जादू था जिसके लिए जयदेव को तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया-रेशमा और शेरा (१९७२), गमन (१९७९) और अनकही (१९८५) हिन्दी फिल्मों के लिए यह एक रिकार्ड है। यह देखते हुए की जयदेव का युग सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन तथा आर डी बर्मन जैसे दिग्गजों का युग था, इन पुरस्कारों का महत्त्व और बढ जाता है। अल्प-स्मृति के इस युग में जब हम महान कहे जाने वाले संगीतकारों के गाने भी हम ६ महीने से ज्यादा याद नहीं रख पाते, संगीत के इस प्रतिमान को सुनना यादों की सुरीली गलियों से गुजरने का सा अनुभव है। आइये सुनते है जयदेव की अलग अलग रंगों वाली तीन संगीत रचनाएँ-----






Saturday, February 14, 2009

मुझे ले चलो आज फ़िर उस गली में...............


समय के रूप आकार के बारे में कभी सोचिये। अब या तो यह बेकार की बात लगेगी या फ़िर बहुत जटिल विश्लेषण। पर कभी सोचिये। मुझे लगता है समय भी पानी की लहरों की तरह है। कभी पलट कर न आने के बावजूद पलट कर आने का एहसास कराती। हर नई लहर पर आभास मानो पिछली लहर ही लौट आई हो। क्या आपको एसा नहीं लगता। ज़नाब ठहरे पानी में एक कंकड़ फेंक कर तो देखिये। क्या क्या लौट कर आता है। आदमीं शायद अपने भीतर ही जीता है। बस समय के साथ उसका क्षितिज विस्तृत होता जाता है। जिन रास्तों से हम गुजरते हैं शायद वे रास्ते भी हमारे साथ साथ चलते रहते हैं। कभी पलट कर देखने भर की जरूरत है। बसंत और पतझड़ के मिले जुले रंगों वाली एक तस्वीर साथ चलती मिलेगी। तो फ़िर आइये सुनिए रफी साहब की आवाज़ में ये दो गीत और एक बार फ़िर पलट कर देखिये उन्ही गुजर चुकी लहरों की ऑर ........

फ़िल्म- शंकर हुसैन- १९७७, गीत- कमाल अमरोही, संगीत-खय्याम



फ़िल्म
-शराबी-१९६४, गीत- राजेन्द्र कृष्ण, संगीत- मदन मोहन





Tuesday, February 10, 2009

मुहब्बतों को पनाह देना.....

(चित्र इंटरनेट से साभार)
१९६३ में बनी फ़िल्म 'ताज महल' के संगीत का जिक्र हो तो 'जो वादा किया वो निभाना पडेगा' और 'जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं' जैसे सर्वकालिक श्रेष्ठ गानों की याद आए बिना नहीं रह सकती। आइये आज इसी फ़िल्म का एक कम प्रसिद्ध गीत लता जी की आवाज़ में सुनते हैं और साहिर की काविता का एक और नायाब नमूना देखते है।



खुदा-ए-बरतर तेरी जमीं पर जमीं की खातिर ये जंग क्यूं है
हर एक फतहों-ज़फर के दामन पे खूने-इन्शां का रंग क्यूं है

जमीं भी तेरी हैं हम भी हैं तेरे, ऐ मिलकियत का सवाल क्या है
ये कत्लो-खूँ का रिवाज़ क्यूं है ये रश्म ज़ंगो -ज़दाल क्या है

जिन्हें तलब है जहान भर की उन्हीं का दिल इतना तंग क्यूं है

गरीब माँओं, शरीफ बहनों को अम्नों-इज्ज़त की जिंदगी दे
जिन्हें अता की है तूने ताक़त उन्हें हिदायत की रौशनी दे

सरों पे किब्रो-गुरूर क्यों है दिलों के शीशों पे ज़ंग क्यूं है।

कज़ा के रस्ते पे जाने वालों को बच के आने की राह देना
दिलों के गुलशन उजड़ न जाएँ, मुहब्बतों को पनाह देना

जहाँ में जश्नेवफ़ा के बदले ये जश्ने तीरो-तुफ़ंग क्यूं है।

खुदा-ऐ-बरतर तेरी जमीं पर जमीं की खातिर ये जंग क्यूं है
हर एक फतहों-ज़फर के दामन पे खूने इन्शां का रंग क्यूं है

Thursday, February 5, 2009

दम भर के लिए मेरी दुनिया में चले आओ....



कल आफिस जाते समय गाड़ी में एफ एम् पर एक गीत अचानक ही बजने लगा . पहले तो विश्वास ही नही हुआ की एफ एम् वालों को भी ये गाने याद हैं ? खैर उसके बाद तो सारे दिन तलत महमूद साहब की रेशमी आवाज़ का जादू दिल पर छाया रहा। आइये आप भी सुनिए १९५५ में बनी फ़िल्म 'बारादरी' का यह गीत..... तसवीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती...




Tuesday, January 27, 2009

बुलबुले हिंद मर गया...


पिछली पोस्ट में आपने अल्ताफ हुसैन हाली का लिखा मिर्जा ग़ालिब का मर्सिया पढा . पेश है उसी के आखिरी पाँच बंद -

()

शहर में जो है सोगवार है आज
अपना बेगाना अश्कबार है आज

नाज़िशे-ख़ल्क का महल रहा
रिहलते-फ़ख्रे-रोज़गार है आज

था जमाने में एक रंगीन तबा
रुखसते-मौसम-बहार है आज

बारे-एहबाब जो उठाता था
दोशे-एहबाब पर सवार है आज

थी हर इक बात नीशतर जिसकी
उसकी चुप से जिगर फ़िगार है आज

दिल में मुद्दत से थी खलिश जिसकी
वही बर्छी जिगर के पार है आज

दिले-मुज़्तर को कौन दे तस्कीन
मातम-यारे-गमगुसार है आज

तल्खी--गम कही नहीं जाती
जाने-शीरीं भी नागवार है आज

किसको लाते हैं बहरे-दफ़्न कि कब्र
हमातन चश्मे-इन्तिज़ार है आज

ग़म से भरता नहीं दिले-नाशाद
किससे खाली हुआ जहाँनाबाद

()

नक्दे-मानी का गंजदाँ रहा
ख्वाने-मज़मून का मेज़बां रहा

साथ उसके गई बहारे-सुखन
अब कुछ अंदेशा--खिजां रहा

हुआ एक एक कारवां सालार
कोई सालार-कारवां रहा

रौनके-हुस्न था बयाँ उसका
गर्म-बाजार-गुलारुखाँ रहा

इश्क़ का नाम उससे रौशन था
कैसो-फरहाद का निशाँ रहा

हो चुकी हुस्नो-इश्क़ कि बातें
गुलो-बुलबुल का तर्जुमा रहा

अहले-हिंद अब करेंगे किस पर नाज़
रश्के-शीराजो-इस्फ़हाँ रहा

ज़िंदा क्यूं कर रहेगा नामे-मुलुक
बादशाहों का मदहख्वान रहा

कोई वैसा नज़र नहीं आता
वह जमीं और वह आसमाँ रहा

उठा गया था जो मायादारे-सुख़न
किसको ठहराएं अब मदार-सुख़न


()

क्या है वह जिसमें वह मर्देकार था
इक ज़माना कि साज़गार था

शाइरी का किया हक़ इसने अदा
पर कोई उसका हक्गुज़ार था

बे-सिला मदह, शे'रे-बे-तहसीन
सुखन उसका किसी पे बार था

नज़ारे-सेल थी जान तक, लेकिन
दराखुरे-हिम्मत-इक्तिदार था

मुल्को-दौलत से बहरावर हुआ
जान देने पे इख्तियार था

खाकसारों से खाकसारी थी
सर्बुलान्दों से इन्किसार था

ऐसे पैदा कहाँ हैं मस्तो-ख़राब
हमने माना कि होशियार था

मज़हरे-शाने-हुस्ने-फितरत था
मानी--लफ्जे-आदमीयत था

कुछ नहीं फर्क बागो-जिन्दां में
आज बाबुल नहीं गुलिस्तां में

()

शहर सारा बना है बीते-हुज़्न
एक यूसुफ़ नहीं जो कन्हान में

मुल्क यकसर हुआ है बेआईन
एक फलातून नहीं जो यूनाँ में

ख़त्म थी इक ज़बान पे शीरीनी
ढूँढते क्या हो सबो -रुम्मां में

हस्र थी इक बयाँ में रंगीनी
क्या धरा है अकीकों-मरजाँ में

लबे-जादू बयाँ हुआ खामोश
गोशे-गुल वा है क्यूं गुलिस्तां में

गोशे-मानी शुनो हुआ बेकार
मुर्ग क्यूं नाराज़ं है बुस्तां में

वह गया जिससे बज़्म थी रौशन
शमा जलती है क्यूं शबिस्ताँ में

रहा जिससे था फरोगे-नज़र
सुरमा बनता है क्यूं सफ़ाहा में

माहे-कामिल में आगई ज़ुल्मत
आबे-हैवाँ पे छा गई ज़ुल्मत

(१०)

हिंद में नाम पायेगा अब कौन
सिक्का अपना बिठाएगा अब कौन

हमने जानी है इससे कदर-सलफ़
उन पर ईमान लाएगा अब कौन

उसने सब को भुला दिया दिल से
उसको दिल से भुलायेगा अब कौन

थी किसी की जिसमें गुंजाइश
वह जगह दिल में पायेगा अब कौन

उससे मिलने को याँ हम आते थे
जाके दिल्ली से आयेगा अब कौन

मर गया कद्र्दाने-फहम-सुखन
शे' हमको सुनाएगा अब कौन

मर गया तिश्नः--मज़ाके-कलाम
हमको घर में बुलाएगा अब कौन

था बिसाते-सुख़न में शातिर एक
हमको चालें बताएगा अब कौन

शे' में नातमाम है 'हाली'
ग़ज़ल इसकी बनाएगा अब कौन


(नुक्ते लगाने हुई भूलों के लिए माफ़ी के साथ)

Monday, January 19, 2009

हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है...

कबाड़खाना पर ग़ालिब से सम्बंधित अनेक उम्दा पोस्ट पढ़ने को मिली इसी सन्दर्भ में ग़ालिब के जीवनी लेखक अल्ताफ हुसैन हाली द्वारा अपने उस्ताद और समकालीन के निधन पर लिखे गए मर्सिये की याद आगई तो आइये आज पढ़ते हैं ख्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली का लिखा जनाब मिर्जा़ असद उल्लाह खाँ ग़ालिब का मर्सिया................. इस संसार में सब कुछ नश्वर है बुलंद से बुलंद और सुंदर से सुंदर वास्तु भी एक दिन नष्ट हो जातीं हैं परन्तु कुछ की कमी हमेशा बनी रहती है और मिर्जा़ ग़ालिब उन्ही शख्सियतों में से एक हैं.......

()

क्या कहूं हाले दर्दे-पिन्हा़नी
वक्त कोताह किस्सा तूलानी

ऐशे-दुनिया से हो गया दिल सर्द
देख कर रंगे-आलमे-फ़ानी

कुछ नहीं जुज़ तिलिस्म-ख्वाबो-ख़याल
गोशे- फ़क्रो-बज़्मे-सुल्तानी

है सरासर फ़रेबे-वहमों-गुमाँ
ताजे-फ़ग़फ़ूरो-तख्ते-खा़कानी

बे-हकी़क़त है शक्ले-मौजे-सराब
जामे-जमशेद राहे-रैहानी

लफ़्ज़े-मुहमल है नुत्के़-आराबी
हर्फ़े-बातिल है अ़क्ले-यूनानी

एक धोका है लह्ने-दाऊदी
एक तमाशा है हुस्ने-कन्आनी

करुँ तिश्नगी में तर लबे-खुश्क
चश्मः--खिज़्र का हो गर पानी

लूँ इकमुश्त ख़ाक के बदले
गर मिले खा़तिमे-सुलैमानी

बहरे- हस्ती बजुज़ सराब नहीं
चश्मः--ज़िन्दगी में आब नही

()

जिससे दुनिया ने आशनाई की
उसने आख़िर को कज़-अदाई की

तुझ पे भूले कोई अबस उम्र
तूने की जिससे बेवफाई की

है ज़माना वफ़ा से बेगाना
हाँ कसम मुझको आशनाई की

यह वह बे-मेहर है की इसकी
सुलह में चाशनी लड़ाई की

है यहाँ हज़्जे़-वस्ल से महरूम
जिसको ताक़त हो जुदाई की

है यहाँ हिफ़्ज़े-वजा़ से मायूस
जिसको आदत हो गदाई की

खंदः--गुल से बेबका़-तर है
शान हो जिसमें दिलरुबाई की

जिन्स--कासिद से नारवातर है
खूबियाँ जिसमें हो खुदाई की

बात बिगड़ी रही सही अफसोस
आज खा़कानी सनाई की

रश्के-उर्फी फ़ख्रे-तालिब मुर्द
असद उल्लाह खाँ गालिब मुर्द

()

बुलबुले-हिंद मर गया हैहात
जिसकी थी बात बात में एक बात

नुक्तादां, नुक्तासंज, नुक्ताशनास
पाक दिल, पाक जात, पाक सिफ़ात

शैख़ और बज़्ला-संजो-शोख़ मिज़ाज
रिंद और मर्जा--करामो-सेका़त

लाख मज़मून और उसका एक ठठोल
सौ तकल्लुफ़ और उसकी सीधी बात

दिल में चुभता था वह अगर बिस्मिल
दिन को कहता दिन और रात को रात

हो गया नक़्श दिल पे जो लिक्खा
कलम उसका था और उसकी दवात

थीं तो दिल्ली में उसकी बातें थीं
ले चलें अब वतन को क्या सौगा़त

उसके मरने से मर गई दिल्ली
मिर्ज़ा नौशा था और शहर बरात

याँ अगर बज़्म थी तो उसकी बज़्म
याँ अगर ज़ात थी उसकी ज़ात

एक रौशन-दिमाग़ था , रहा
शहर में इक चिराग़ था, रहा


()

दिल को बातें जब उसकी याद आएँ
किसकी बातों से दिल को बहलाएं

किसको जाकर सुनाएँ शे'रो-ग़ज़ल
किससे दादे-सुखनवरी पाएँ

मर्सिया उसका लिखते हैं एहबाब
किससे इस्लाह लें, किधर जाएँ

पस्त मज़मून है नौहा--उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुंचाएं

लोग कुछ पूछने को आए हैं
अहले-मय्यत जनाज़ा ठहराएं

लायेंगे फिर कहाँ से ग़ालिब को
सूए-मदफ़न अभी ले जाएँ

उसको अगलों में क्यूं देन तरजीह
अहले इंसाफ़ गौ़र फ़रमायें

कुदसी साइब असीर कलीम
लोग जो चाहें उनको ठहराएं

हमने सबका कलाम देखा है
है अदब शर्त मुँह खुलवाएं

गालिबे-नुक्तादां से क्या निस्बत
ख़ाक को आसमाँ से क्या निस्बत


()

नस्र, हुस्नो-जमाल की सूरत
नज़्म, गंजो-दलाल की सूरत

तहनियत इक निशात की तस्वीर
ताज़ियत इक मलाल की सूरत

का़ल उसका वह आइना जिसमें
नज़र आती थी हाल की सूरत

इसकी तौजीह से पकड़ती थी
शक्ले-इम्काँ महाल की सूरत

इसकी तावील से बदलती थी
रंगे-हिज्राँ विसाल की सूरत

लुत्फे-आगाज़ से दिखाता था
सुखन इसका मआल की सूरत

चश्मे-दौरान से आज छुपती है
अनवरी कमाल की सूरत

लौहे-इम्काँ से आज मिटती है
इल्मों -फ़ज़्लो-कमाल की सूरत

देखा लो आज फिर देखोगे
गा़लिबे-बेमिसाल की सूरत

अब दुनिया में आएँगे यह लोग
कहीं ढूंढें पाएँगे यह लोग


..............................................शेष पाँच बंद अगली पोस्ट में
(नुक्ते लगाने हुई भूलों के लिए माफ़ी के साथ)

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails