Saturday, August 30, 2008

अहमद फ़राज़ साहेब को श्रद्धांजलि

अहमद फ़राज़ साहेब को श्रद्धांजलि स्वरूप उन्ही की यह ग़ज़ल मेहँदी हसन की आवाज़ में -



रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ,
आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।


पहले से मरासिम न सही फ़िर भी कभी तो,
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ।


किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम,
तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ।


अब तक दिले खुशफहम को तुझसे है उम्मीदे,
ऐ आखरी शम्मे भी बुझाने के लिए आ।


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एक और ग़ज़ल पेश है-


अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ।

उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती

ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा

दोनों इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें।

गम-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो

नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें।

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर

क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें।

अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़',

जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें।


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Thursday, August 28, 2008

एक भूली हुई ग़ज़ल

तकरीबन ३० साल पहले 'सारिका' में छपी मोहन सोनी साहब की यह ग़ज़ल बिना कहीं नोट किए अब तक न जाने क्यो याद रह गई है -- शायद हालत अब भी नही बदले हैं -- आप भी पढ़ें --

चमन की, गुल की, खुशबू की, फिजां की बात करते हो ,
अमाँ तुम किस वतन के हो कहाँ की बात करते हो।

यहाँ हर शाख गिरवी है , परिंदे परकटे से हैं,
कफ़स के कैदियों से आशियाँ की बात करते हो।

यहाँ पर जिंदगी क्या मौत भी एहसान जैसी है,
यहाँ किस दोस्त की किस मेहरबांकी बात करते हो।

कभी चर्चा नहीं करना सिसकती इन हवाओं का,
अगरचे लौट भी जाओ जहाँ की बात करते हो।

Tuesday, August 26, 2008

अज्ञात

तू निगाहों की तमाज़द से पिघल जाता है,
दिल तो सहरा है तुझे दिल से लगाऊं कैसे।
एक खुशबू है फजाओं में घुली जाती है,
मै तेरा नाम ज़माने से छुपाऊं कैसे।

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