फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है।
सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Wednesday, September 10, 2008
छाप तिलक सब छीनी
अमीर खुसरो की यह अमर रचना महेन मेहता जी के ब्लॉग पर मेहनाज़ की आवाज़ में सुनी। अब उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खां की आवाज़ में इसे आप को सुनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ--
1 comment:
आनंद आया.अपने ब्लाग पर ऐसी ही उम्दा रचनायें प्रस्तुत करते रहें.यह कौन सा प्लेयर है भाई ,जरा इसका पता तो दीजिये. अब तो यहां का फ़ेरा लगता रहेगा.
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