रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ,
आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
पहले से मरासिम न सही फ़िर भी कभी तो,
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ।
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम,
तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ।
अब तक दिले खुशफहम को तुझसे है उम्मीदे,
ऐ आखरी शम्मे भी बुझाने के लिए आ।
एक और ग़ज़ल पेश है-
अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ।
उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें।
गम-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें।
आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें।
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़',
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें।
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