जिक्र फ़िर उसी फनकार का है जिसे जितना सुनिए उतनी ही सुनाने की इच्छा होती है। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ मेहंदी हसन साहब की। उन्होंने जीतनी बढिया गज़लें गई हैं उतने ही अच्छे गाने फिल्मों के लिए भी गाए हैं। उन्ही गानों में से मैं आज आपको अपना पसंदीदा गीत सुनवा रहा हों। जितना अच्छा मेहंदी हसन जी ने गाया है, उतने ही अच्छे बोल हैं। मुझे गीत का नाम नहीं मालूम है। यदि आपमें से किसी को ज्ञात हो तो बताइएगा। लीजिए तुझे प्यार करते-करते मेरी उम्र बीत जाए.....
फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है। सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Tuesday, September 30, 2008
Sunday, September 28, 2008
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों ...
आज लता जी का अस्सीवाँ जन्म दिन है। सुरों की इस साम्राज्ञी की उम्र हजारों साल हो ऐ दुआ कर ही रहे थे की ख़बर पढ़ी की आवाज़ की दुनिया का एक और सितारा अस्त हो गया। पार्श्वगायन के स्वर्णयुग के एक प्रतिनिधि थे महेंद्र कपूर भी। जिस युग में मुहम्मद रफी साहब, किशोर दा और मुकेश जी जैसे दिग्गज थे , महेंद्र कपूर जी ने अपने लिए अलग जगह बनायी। मेरे देश की धरती सोना उगले, चलो एक बार फ़िर से , न सर झुका के जियो, किसी पत्थर की मूरत इत्यादि गाने और गुमराह , हमराज़, काजल, धूल का फूल, निकाह आदि फिल्में हमेशा महेंद्र कपूर जी के गायन के लिए याद की जायेगी। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। उनको श्रद्धांजलि स्वरूप पेश है उनका गाया निकाह फ़िल्म का यह गीत जो संभवत कुछ सबसे अच्छे विदा गीतों में से है----
Saturday, September 27, 2008
उड़ जाएगा हंस अकेला...
जब एक दिन
सब कुछ रुक जाएगा
रुक जाएगा साँसों का तूफ़ान
रुक जाएगी धड़कन सीने की
जिस्म की हरारत
ठंडी पड़ जाएगी ।
जब वक्त की हथेली
तुम्हे ले लेगी
अपनी मजबूत गिरफ्त में।
तब जब मिट जाएगा
हर चिन्ह ।
और तुम डाल से टूटे
पत्ते की मानिंद
फ़िर न मिल पाओगे
कभी अपने अपनों से।
तब तुम्हारे साथ होगी बस
तुम्हारे अच्छे बुरे कामो की
फेरहिस्त ।
जो बोया होगा तुमने
काटोगे भी वही।
सब कुछ रुक जाएगा
रुक जाएगा साँसों का तूफ़ान
रुक जाएगी धड़कन सीने की
जिस्म की हरारत
ठंडी पड़ जाएगी ।
जब वक्त की हथेली
तुम्हे ले लेगी
अपनी मजबूत गिरफ्त में।
तब जब मिट जाएगा
हर चिन्ह ।
और तुम डाल से टूटे
पत्ते की मानिंद
फ़िर न मिल पाओगे
कभी अपने अपनों से।
तब तुम्हारे साथ होगी बस
तुम्हारे अच्छे बुरे कामो की
फेरहिस्त ।
जो बोया होगा तुमने
काटोगे भी वही।
Tuesday, September 23, 2008
एही ठइयां मोतिया हेराय गइलीं रामा
मेरे विचार से किसी गीत के अच्छा होने के लिए अच्छी कविता के साथ अच्छे गायन का संगम होना आवश्यक है। मुझे संगीत की समझ बस इतनी है कि जो मेरे मन को अच्छा लगे वाही अच्छा संगीत है। इस लिए अच्छे संगीत की पहचान मैं कान से करता हूँ दिमाग से नहीं। संभवत आनंद का सृजन ही हर कला का मूल उद्देश्य भी है।ठुमरी सुनाने का अपना एक अलग आनंद है। लीजिए निर्मला देवी की आवाज़ के यह खुबसूरत ठुमरी आप भी सुनिए -
Saturday, September 20, 2008
उम्र जलवों में बसर हो
जगजीत सिंह की आवाज़ हो तो ग़ज़ल का सुरूर और बढ़ जाता है। एक पीढी उनकी गज़लें सुनते हुए बड़ी हुई है। मगर वे आज की पीढ़ी में भी उतने ही मकबूल हैं जितने की हमारी। उनकी मखमली आवाज़ का जादू अब तक न जाने कितनो को दीवाना बना चुका है। आज मैं आपको उनकी एक पुरानी ग़ज़ल सुनवाता हूँ। खामोश देहलवी की इस ग़ज़ल को जगजीत जी ने बड़े मूड से गाया है। लीजिए हाज़िर है -
उम्र जलवों में बसर हो ये ज़रूरीतो नहीं
हर शबे-ग़म की सहर हो ये ज़रूरीतो नहीं।
चश्मेसाकी से पियो या लबे सागर से पियो ,
बेखुदी आठो पहर हो ये जरुरी तो नहीं।
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
शेख करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज़दे,
उसके सज़दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
सब की नज़रों में हो साकी ये ज़रूरी है मगर ,
सब पे साकी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं।
हर शबे-ग़म की सहर हो ये ज़रूरीतो नहीं।
चश्मेसाकी से पियो या लबे सागर से पियो ,
बेखुदी आठो पहर हो ये जरुरी तो नहीं।
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
शेख करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज़दे,
उसके सज़दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
सब की नज़रों में हो साकी ये ज़रूरी है मगर ,
सब पे साकी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं।
Wednesday, September 17, 2008
राम करें कही नैना न उलझें
राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने एक प्रसंग का बहुत सुंदर वर्णन किया है - पुष्प-वाटिका में राम सीता को और सीता राम को देखते हैं और दोनों एक दूसरे को अपलक देखते रह जाते है-
'भए विलोचन चारु अचंचल,
मनहु सकुचि निमी तजे दिगंचल।
मनहु सकुचि निमी तजे दिगंचल।
दोनों के सुंदर नयन स्थिर हो गए हैं। मानो इस प्रेम सिक्त युगल को देख संकोच वश निमी (राजा जनक के एक पूर्वज जो कथानुसार पलकों पर बसते है और इसी कारण पलकें झपकती है. पलकों के झपकने के बीच के समय को निमिष कहते हैं) पलकों पर से हट गए हैं। नैनों का प्रेम की दुनिया में विशेष स्थान है। तभी तो फकीर कहता है -
'कागा सब तन खाइयों चुन चुन खइयो मांस ,
मृगनयनी को यार
बनारस में प्रचलित लोकगीत विधाएं जैसे ठुमरी, कजरी, होरी, चैती और पूर्वी इत्यादि अक्सर शास्त्रीय और उपशास्त्रीय बंदिशों में सुनने को मिल जाती है पर आज ब्रज का लोकगीत 'रसिया' पंडित जसराज जी की आवाज़ में सुनिए। ब्रज जहाँ राधा और कृष्ण का अमर प्रेम जन-जन के, लोक के मन में गहरे तक बसा है। उसी प्रेम रस से सराबोर यह रचना जो मुझे बहुत पसंद है। आप को भी उम्मीद है पसंद आएगी-
Sunday, September 14, 2008
तेरे इश्क ने नचाया
संगीत और कविता मन को उस असीम से जोड़ने का सदैव ही माध्यम रहे हैं। उसके इश्क का सम्मोहन जब मन और आत्मा की गहराइयों तक उतरता है तब पाँव ख़ुद-ब-ख़ुद थिरकने लगते है । जब उसका प्रेम नचाता है तो फकीर बुल्लेशाह भी नाचते है और मीरा भी। सूफी संगीत सदा ही मन को राहत और शान्ति देता है। वडाली बंधुओं का गायन हमें इसी भाव-भूमि में ले जाता है । इस अशांति के दौर में बाबा बुल्ले शाह की यह रचना पटियाला घराने के सुप्रसिद्ध गायक वडाली बंधुओं पद्मश्री पूरण चन्द वडाली और प्यारे लाल वडाली की आवाज़ में आप भी सुनिए-
Saturday, September 13, 2008
दिगंबर की होली
आप भी कहेंगे कि अभी तो दीपावली आने को है और इसे होली कि सूझी है। पर यकीन मानिए पंडित छन्नू लाल मिश्र का गाया यह फाग सुना तो लगा इसे आपको भी सुनाया जाय। 'होली खेलै रघुबीरा अवध में' तो आप ने जरूर सुनी होगी अब भूतनाथ की होली का भी हाल जानिए। पंडितजी ने ठेठ बनारसी अंदाज में गाया भी खूब है, होली का माहौल जीवंत हो उठा है -
Wednesday, September 10, 2008
छाप तिलक सब छीनी
अमीर खुसरो की यह अमर रचना महेन मेहता जी के ब्लॉग पर मेहनाज़ की आवाज़ में सुनी। अब उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खां की आवाज़ में इसे आप को सुनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ--
Friday, September 5, 2008
तेरे इश्क के बहाने
नहीं मिलती तेरी सूरत से किसी की सूरत हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं ।
जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-
जी हाँ, सूफी कविता उसी अनंत की तलाश का माध्द्यम है जो हर जगह है, हर शय में है। माशूक की शक्ल में वही होता है चाहे वह रतनसेन की पद्मावती (पद्मावत) हो चाहे कैश की लैला। आशिक हर सूरत में उसी की सूरत देखता है। यह हमें 'इश्क मज़ाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्क हकीकी' (अलौकिक प्रेम) की दुनिया में ले जाता है । यहाँ उस्ताद नुसरत फतह अली खान भी उसी यार को मनाने की बात कर रहे हैं-
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