समय के रूप आकार के बारे में कभी सोचिये। अब या तो यह बेकार की बात लगेगी या फ़िर बहुत जटिल विश्लेषण। पर कभी सोचिये। मुझे लगता है समय भी पानी की लहरों की तरह है। कभी पलट कर न आने के बावजूद पलट कर आने का एहसास कराती। हर नई लहर पर आभास मानो पिछली लहर ही लौट आई हो। क्या आपको एसा नहीं लगता। ज़नाब ठहरे पानी में एक कंकड़ फेंक कर तो देखिये। क्या क्या लौट कर आता है। आदमीं शायद अपने भीतर ही जीता है। बस समय के साथ उसका क्षितिज विस्तृत होता जाता है। जिन रास्तों से हम गुजरते हैं शायद वे रास्ते भी हमारे साथ साथ चलते रहते हैं। कभी पलट कर देखने भर की जरूरत है। बसंत और पतझड़ के मिले जुले रंगों वाली एक तस्वीर साथ चलती मिलेगी। तो फ़िर आइये सुनिए रफी साहब की आवाज़ में ये दो गीत और एक बार फ़िर पलट कर देखिये उन्ही गुजर चुकी लहरों की ऑर ........
फ़िल्म- शंकर हुसैन- १९७७, गीत- कमाल अमरोही, संगीत-खय्याम
फ़िल्म-शराबी-१९६४, गीत- राजेन्द्र कृष्ण, संगीत- मदन मोहन
फ़िल्म- शंकर हुसैन- १९७७, गीत- कमाल अमरोही, संगीत-खय्याम
फ़िल्म-शराबी-१९६४, गीत- राजेन्द्र कृष्ण, संगीत- मदन मोहन
4 comments:
"कहीं एक मासूम..." १९७७ का गीत है, विश्वास नहीं होता. शायद पहले ही रिकॉर्ड कर लिया गया होगा.
पहला गीत सुना...मदहोश करने वाला ये गीत, इसके मध्यम सुर मुझे हमेशा से अच्छे लगते है, दूसरे गीत के लिये ज़रा समय निकाल कर बैठना पड़ेगा...! सुनकर फिर बताऊँगी..!
दूसरा गीत भी सुना ..लगभग एक ही मूड...! सुंदर
इन बेमिशाल गीतों के लिए मैं सिर्फ़ यही कहना चाहूँगा की, कई लोग और गीतकार और भी हैं हमारे दरमियाँ जो कहीं दिखते नहीं, वे खिलते हैं उस रात की रानी के फूल की तरह और सुबह होते-होते फिर से छुप जाते हैं। बड़े-बड़े शायरों और गीतकारों के बीच मे ये लहकते और बहकते शायरों की ज़ुबाँ भी महकती है।
कहते हैं, मिटाने को तो वो लकीर भी मिटाई जा सकती है जो पत्थर पर खिची है मगर उस लाइन को मिटाना मुश्किल है जिसे रोज़ घिसा गया है।
ये उस रियाज़ की याद दिलाता है।
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