फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है।
सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Tuesday, August 26, 2008
अज्ञात
तू निगाहों की तमाज़द से पिघल जाता है, दिल तो सहरा है तुझे दिल से लगाऊं कैसे। एक खुशबू है फजाओं में घुली जाती है, मै तेरा नाम ज़माने से छुपाऊं कैसे।
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