Thursday, August 28, 2008

एक भूली हुई ग़ज़ल

तकरीबन ३० साल पहले 'सारिका' में छपी मोहन सोनी साहब की यह ग़ज़ल बिना कहीं नोट किए अब तक न जाने क्यो याद रह गई है -- शायद हालत अब भी नही बदले हैं -- आप भी पढ़ें --

चमन की, गुल की, खुशबू की, फिजां की बात करते हो ,
अमाँ तुम किस वतन के हो कहाँ की बात करते हो।

यहाँ हर शाख गिरवी है , परिंदे परकटे से हैं,
कफ़स के कैदियों से आशियाँ की बात करते हो।

यहाँ पर जिंदगी क्या मौत भी एहसान जैसी है,
यहाँ किस दोस्त की किस मेहरबांकी बात करते हो।

कभी चर्चा नहीं करना सिसकती इन हवाओं का,
अगरचे लौट भी जाओ जहाँ की बात करते हो।

2 comments:

प्रदीप मानोरिया said...

यहाँ हर शाख गिरवी है , परिंदे परकटे से हैं,
कफ़स के कैदियों से आशियाँ की बात करते हो।
बहुत सुंदर प्रस्तुति
बधाई
कृपया पधारे manoria.blogspot.com and knjiswami.blog.co.in

GOPAL K.. MAI SHAYAR TO NAHI... said...

KUCHH GAZALEIN HOTI HAIN JO DIL ME BAS JAYA KARTI HAIN,
SOCHIYE KI DIL PAR KITNI GEHRAYI SE UTARI HOGI YE GAZAL KI BINA NOTE KIYE YAAD RAH GAYI AAJ 30 SAAL BAAD TAK..
ACHHA LAGA GAZAL KE AISE KADRADAAN KO DEKHKAR..
SHUKRIYA

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