एक संगीतकार जिसकी याद आते ही मन में जलतरंग सी बज उठे। जीहाँ मैं जयदेव की बात कर रहा हूँ। वह संगीतकार जिसकी धुनों में भारतीय संगीत अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ बिखरा पडा है। चाहे शास्त्रीय धुनें हों चाहे लोकसंगीत या फ़िर ग़ज़ल हो जयदेव हर जगह अप्रतिम हैं। संगीत का यही जादू था जिसके लिए जयदेव को तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया-रेशमा और शेरा (१९७२), गमन (१९७९) और अनकही (१९८५) हिन्दी फिल्मों के लिए यह एक रिकार्ड है। यह देखते हुए की जयदेव का युग सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन तथा आर डी बर्मन जैसे दिग्गजों का युग था, इन पुरस्कारों का महत्त्व और बढ जाता है। अल्प-स्मृति के इस युग में जब हम महान कहे जाने वाले संगीतकारों के गाने भी हम ६ महीने से ज्यादा याद नहीं रख पाते, संगीत के इस प्रतिमान को सुनना यादों की सुरीली गलियों से गुजरने का सा अनुभव है। आइये सुनते है जयदेव की अलग अलग रंगों वाली तीन संगीत रचनाएँ-----
फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है। सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Friday, February 20, 2009
Saturday, February 14, 2009
मुझे ले चलो आज फ़िर उस गली में...............
समय के रूप आकार के बारे में कभी सोचिये। अब या तो यह बेकार की बात लगेगी या फ़िर बहुत जटिल विश्लेषण। पर कभी सोचिये। मुझे लगता है समय भी पानी की लहरों की तरह है। कभी पलट कर न आने के बावजूद पलट कर आने का एहसास कराती। हर नई लहर पर आभास मानो पिछली लहर ही लौट आई हो। क्या आपको एसा नहीं लगता। ज़नाब ठहरे पानी में एक कंकड़ फेंक कर तो देखिये। क्या क्या लौट कर आता है। आदमीं शायद अपने भीतर ही जीता है। बस समय के साथ उसका क्षितिज विस्तृत होता जाता है। जिन रास्तों से हम गुजरते हैं शायद वे रास्ते भी हमारे साथ साथ चलते रहते हैं। कभी पलट कर देखने भर की जरूरत है। बसंत और पतझड़ के मिले जुले रंगों वाली एक तस्वीर साथ चलती मिलेगी। तो फ़िर आइये सुनिए रफी साहब की आवाज़ में ये दो गीत और एक बार फ़िर पलट कर देखिये उन्ही गुजर चुकी लहरों की ऑर ........
फ़िल्म- शंकर हुसैन- १९७७, गीत- कमाल अमरोही, संगीत-खय्याम
फ़िल्म-शराबी-१९६४, गीत- राजेन्द्र कृष्ण, संगीत- मदन मोहन
फ़िल्म- शंकर हुसैन- १९७७, गीत- कमाल अमरोही, संगीत-खय्याम
फ़िल्म-शराबी-१९६४, गीत- राजेन्द्र कृष्ण, संगीत- मदन मोहन
Tuesday, February 10, 2009
मुहब्बतों को पनाह देना.....
१९६३ में बनी फ़िल्म 'ताज महल' के संगीत का जिक्र हो तो 'जो वादा किया वो निभाना पडेगा' और 'जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं' जैसे सर्वकालिक श्रेष्ठ गानों की याद आए बिना नहीं रह सकती। आइये आज इसी फ़िल्म का एक कम प्रसिद्ध गीत लता जी की आवाज़ में सुनते हैं और साहिर की काविता का एक और नायाब नमूना देखते है।
हर एक फतहों-ज़फर के दामन पे खूने-इन्शां का रंग क्यूं है
जमीं भी तेरी हैं हम भी हैं तेरे, ऐ मिलकियत का सवाल क्या है
ये कत्लो-खूँ का रिवाज़ क्यूं है ये रश्म ज़ंगो -ज़दाल क्या है
जिन्हें तलब है जहान भर की उन्हीं का दिल इतना तंग क्यूं है
गरीब माँओं, शरीफ बहनों को अम्नों-इज्ज़त की जिंदगी दे
जिन्हें अता की है तूने ताक़त उन्हें हिदायत की रौशनी दे
सरों पे किब्रो-गुरूर क्यों है दिलों के शीशों पे ज़ंग क्यूं है।
कज़ा के रस्ते पे जाने वालों को बच के आने की राह देना
दिलों के गुलशन उजड़ न जाएँ, मुहब्बतों को पनाह देना
जहाँ में जश्नेवफ़ा के बदले ये जश्ने तीरो-तुफ़ंग क्यूं है।
खुदा-ऐ-बरतर तेरी जमीं पर जमीं की खातिर ये जंग क्यूं है
हर एक फतहों-ज़फर के दामन पे खूने इन्शां का रंग क्यूं है
Thursday, February 5, 2009
दम भर के लिए मेरी दुनिया में चले आओ....
कल आफिस जाते समय गाड़ी में एफ एम् पर एक गीत अचानक ही बजने लगा . पहले तो विश्वास ही नही हुआ की एफ एम् वालों को भी ये गाने याद हैं ? खैर उसके बाद तो सारे दिन तलत महमूद साहब की रेशमी आवाज़ का जादू दिल पर छाया रहा। आइये आप भी सुनिए १९५५ में बनी फ़िल्म 'बारादरी' का यह गीत..... तसवीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती...
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