कहते हैं कि वह हर शय में मौजूद है , मगर फ़िर दिखायी क्यों नहीं पाड़ता। उसे खोजने में क्यों जीवन बीत जाता है? जिसे उसका ज्ञान हो गया, वह उसी में खो गया। उसे फ़िर कुछ सुध न रही कि बता सके उसका रंग-रूप, शक्ल-स्वरूप । बताता भी तो क्या, वह तो सारे वर्णन से परे है। कबीर ने तभी तो उसे 'गूंगे का गुड' कहा है। हर तर्क से परे। पूजा वन्दना से परे। हमारी सोच और कल्पना से परे। दुनिया की सब दूरियों से दूर। पर मन लग गया तो बस मन के पास, मन के अन्दर। जहाँ सर झुक गया वहीं उसका घर । ....... इसी ऊहापोह की चर्चा करता यह गीत सुनिए उस्ताद नुसरत फतह अली खां से-
ये सोचां सोच के दिल मेरा क्यों पारा पारा हो जाता........
ये सोचां सोच के दिल मेरा क्यों पारा पारा हो जाता........
7 comments:
उसकी चर्चा एक ऐसा तिलिस्म है, जो कभी तोडा ना जा सकेगा
वो एहसास करने की चीज़ है, चर्चा की नही
waah!!
सिर्फ़ एहसास है,इसे रूह से महसूस करो.........और बस डूबते जाओ......
बेहतरीन सिंह साब!
नुरसत उस्ताद का जलवा है कि कम पड़ता ही नहीं.अच्छा हुआ हम कलजुग में भये...उस्ताद को मिलने जन्नत में कहाँ जा पाते ?
सच कहा गूँगे गुड़....!
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे!
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