इब्ने-इंशा (१९२७-१९७८) की ग़ज़ल 'कल चौदहवीं की रात थी ' न जाने कब से जगजीत सिंह और गुलाम अली की आवाजों में सुनते आ रहें हैं. उनकी 'उर्दू की आखिरी किताब' ने कभी जिया-उल-हक साहब को नाराज़ कर दिया था अपने मारक व्यंग से। उस किताब की भूमिका में लिखा उनका एक वाक्य अब भी जेहन में कौंध जाता है- 'यह किताब केवल बालिगों के लिए है, जेहनी तौर पर बालिगों के लिए'। वह किताब तो मेरे किसी साहित्य रसिक दोस्त ने पार कर दी नहीं तो आज दो-चार व्यंग आप की नज़र करता पर आइए आज सुनते हैं इब्ने इंशा का कलाम आबिदा जी की शानदार आवाज में। आबिदा जी गायन के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है बस सुनिए और आनंद लीजिये-
दिल इश्क में बे-पायां, सौदा हो तो ऐसा हो।
दरिया हो तो ऐसा हो, सहरा हो तो ऐसा हो।
हमसे नहीं रिश्ता भी, हमसे नहीं मिलता भी,
है पास वो बैठा भी, धोखा हो तो ऐसा हो।
वो भी रहा बेगाना, हमने भी ना पहचाना,
हाँ ऐ दिले दीवाना, अपना हो तो ऐसा हो।
हमने यही माँगा था, उसने यही बख्शा है,
बन्दा हो तो ऐसा हो, डाटा हो तो ऐसा हो।
इस दौर में क्या क्या है, रुसवाई भी लज्जत भी,
कांटा हो तो ऐसा हो, चुभता हो तो ऐसा हो।
ऐ क़ैस जुनूँ-पेशा, इंशा को कभी देखा,
वहशी हो तो ऐसा हो, रुसवा हो तो ऐसा हो।
6 comments:
शानदार गज़ल !
जानदार आवाज़ !!
दरिया हो तो ऐसा हो, सहरा हो तो ऐसा हो ...
... क्या सुनवा दिया बड़े भाई!
NARAYAN NARAYAN
* सुना , आनंद आया.
** 'उर्दू की आखिरी किताब' की आपने खूब याद दिलाई. यह मेरे पास है. चलिए 'कर्मनाशा' / 'कबाड़खाना'पर कुछ इसी में से लगाता हूँ.
हमसे नहीं रिश्ता भी, हमसे नहीं मिलता भी,
है पास वो बैठा भी, धोखा हो तो ऐसा हो।
वो भी रहा बेगाना, हमने भी ना पहचाना,
हाँ ऐ दिले दीवाना, अपना हो तो ऐसा हो।
waah ..pahali baar suna..! bahut khoob
बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आपका आभार
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