Tuesday, December 23, 2008

ये सोचां सोच के दिल मेरा........

कहते हैं कि वह हर शय में मौजूद है , मगर फ़िर दिखायी क्यों नहीं पाड़ता उसे खोजने में क्यों जीवन बीत जाता है? जिसे उसका ज्ञान हो गया, वह उसी में खो गया उसे फ़िर कुछ सुध रही कि बता सके उसका रंग-रूप, शक्ल-स्वरूप बताता भी तो क्या, वह तो सारे वर्णन से परे है कबीर ने तभी तो उसे 'गूंगे का गुड' कहा है हर तर्क से परे पूजा वन्दना से परे हमारी सोच और कल्पना से परे दुनिया की सब दूरियों से दूर पर मन लग गया तो बस मन के पास, मन के अन्दर जहाँ सर झुक गया वहीं उसका घर । ....... इसी ऊहापोह की चर्चा करता यह गीत सुनिए उस्ताद नुसरत फतह अली खां से-

ये
सोचां सोच के दिल मेरा क्यों पारा पारा हो जाता........



Thursday, December 18, 2008

टप टप चुवेला पसीना.....


आइये आज देशी रस में डूबते है। शहरों ने हमसे जो कुछ छीना है उन्हीं में हमारे लोकगीत भी है। कजरी, फाग, चैती, बिरहा, सोहर, ब्याह, बन्ना, विदाई हर अबसर हर मौसम के कुछलोकगीत कुछ लोकगीत सराबोर अपने पीछे एक समृद्ध परम्परा लिए। हमारे सुख दुःख से जुड़े गीत। माटी की महक लिए हर अवसर पर मन की गहराईयों से फूट पड़ने को आतुर। पर रोजगार के गम सब पर भारी पड़ गए। पर मन का क्या करे आज भी भटक भटक जाता है-किसी झूले पर, किसी बिरहा के दंगल में, नौटंकी में ...पहले तो कभी कभी आकाशवाणी के किसी स्टेशन से सुनाई भी पड़ जाते थे अब ऍफ़ एम् की कृपा से वह सब भी समाप्त हो गया। और लोकगीत के नाम पर जो कुछ सुनाई भी पङता है उससे तो न सुनना ही अच्छा। कम से कम कानो में अब तक जो रस घुला हुआ है वह तो बना रहे। खैर छोडिये .... आइये सुनते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी की गायी यह कज़री- बदरिया घिरी आइल ननदी....



अब सुनिए फैज़ल की आवाज़ में सूरीनाम का यह भोजपुरी गीत- टप टप चुवेला पसीना सजन बिना ......


और अब फ़िल्म 'गंगा मईया तोहें पियरी चढ़ाइबो ' का शैलेन्द्र का लिखा गीत- काहे बसुरिया बजवले....


(चित्र इंटरनेट से साभार)

Monday, December 15, 2008

सौदा हो तो ऐसा हो....

इब्ने-इंशा (१९२७-१९७८) की ग़ज़ल 'कल चौदहवीं की रात थी ' जाने कब से जगजीत सिंह और गुलाम अली की आवाजों में सुनते रहें हैं. उनकी 'उर्दू की आखिरी किताब' ने कभी जिया-उल-हक साहब को नाराज़ कर दिया था अपने मारक व्यंग से उस किताब की भूमिका में लिखा उनका एक वाक्य अब भी जेहन में कौंध जाता है- 'यह किताब केवल बालिगों के लिए है, जेहनी तौर पर बालिगों के लिए' वह किताब तो मेरे किसी साहित्य रसिक दोस्त ने पार कर दी नहीं तो आज दो-चार व्यंग आप की नज़र करता पर आइए आज सुनते हैं इब्ने इंशा का कलाम आबिदा जी की शानदार आवाज में आबिदा जी गायन के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है बस सुनिए और आनंद लीजिये-




दिल इश्क में बे-पायां, सौदा हो तो ऐसा हो।
दरिया हो तो ऐसा हो, सहरा हो तो ऐसा हो।

हमसे नहीं रिश्ता भी, हमसे नहीं मिलता भी,
है पास वो बैठा भी, धोखा हो तो ऐसा हो।

वो भी रहा बेगाना, हमने भी ना पहचाना,
हाँ ऐ दिले दीवाना, अपना हो तो ऐसा हो।

हमने यही माँगा था, उसने यही बख्शा है,
बन्दा हो तो ऐसा हो, डाटा हो तो ऐसा हो।

इस दौर में क्या क्या है, रुसवाई भी लज्जत भी,
कांटा हो तो ऐसा हो, चुभता हो तो ऐसा हो।

ऐ क़ैस जुनूँ-पेशा, इंशा को कभी देखा,
वहशी हो तो ऐसा हो, रुसवा हो तो ऐसा हो।


Saturday, December 6, 2008

नैना अपने पिया से ......

कुछ दिन पहले सिद्धेश्वर भाई ने अमीर खुसरो के बारे में ठीक ही लिखा था कि ''हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने।" तो फ़िर आज इन्ही संगीतकारों की ओर से इस महान साहित्यकार और संगीतकार की दो रचनाएँ मैं आप को सुनवाता हूँ। लेकिन चलिए पहले अमीर खुसरो के कुछ दोहे फ़िर से पढ़े जाय -




खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार ,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।

खुसरो बाज़ी प्रेम की, मैं खेलूँ पी के संग,
जीत गई तो पीया मेरे, हारी पी के संग।

खुसरो रैन सुहाग की, मैं जागी पी के संग,
तन मोरा मन पीया का दोनों एक ही रंग।

भाई रे मल्लाह जो हमको पार उतार,
हाथ का देवूँगी कंगना, गले का देवन हार।

अपनी छब बनाई के मैं पी के पास गई
जो छब देखि पीहू की मैं अपनी भूल गई।

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केश
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देश।

पहले उस्ताद नुसरत फतह अली खान की आवाज़ में - 'रंग'



अब पेश है उस्ताद राशिद खान की आवाज़ में - 'नैना अपने पिया से लगा आई रे....'




हाँ
आमिर खुसरो पर बहुत सारी सामग्री इस वेब साईट पर उपलब्ध है- कभी जाइए-

http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/amirmusc.htm


Monday, December 1, 2008

आ मिल यार ...


पिछले दिनों देश में जो कुछ हुआ और उस पर हमारे राजनैतिक प्रतिष्ठान की जो प्रतिक्रया रही उससे हम सब का मन खिन्न है जीवन तो चलता ही है पर कुछ कुछ बदल जरूर जाता है फ़िर बहारें आएँगी उजडे चमन की शाख पर, पर खून के धब्बे धुलेंगें कितनी बरसातों के बाद..... दुआ करें कि ऐसा फ़िर कभी हो, कहीं हो सिद्धेश्वर जी का आदेश है की कुछ ऐसा सुनवाया जाय जिससे खिन्नता मिटे आदेश का पालन तो करना ही है पेश है एक बार फ़िर वडाली बंधु बाबा बुल्ले शाह के कलाम के साथ। 'कदी आ मिल यार .......' वडाली बंधु इस गीत में अपने गायन से हमें एक दूसरी ही दुनिया में ले जाते हैं। लीजिये आप भी अनुभव कीजिये-

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