फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है।
सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
आइये आज देशी रस में डूबते है। शहरों ने हमसे जो कुछ छीना है उन्हीं में हमारे लोकगीत भी है। कजरी, फाग, चैती, बिरहा, सोहर, ब्याह, बन्ना, विदाई हर अबसर हर मौसम के कुछलोकगीत कुछ लोकगीत सराबोर अपने पीछे एक समृद्ध परम्परा लिए। हमारे सुख दुःख से जुड़े गीत। माटी की महक लिए हर अवसर पर मन की गहराईयों से फूट पड़ने को आतुर। पर रोजगार के गम सब पर भारी पड़ गए। पर मन का क्या करे आज भी भटक भटक जाता है-किसी झूले पर, किसी बिरहा के दंगल में, नौटंकी में ...पहले तो कभी कभी आकाशवाणी के किसी स्टेशन से सुनाई भी पड़ जाते थे अब ऍफ़ एम् की कृपा से वह सब भी समाप्त हो गया। और लोकगीत के नाम पर जो कुछ सुनाई भी पङता है उससे तो न सुनना ही अच्छा। कम से कम कानो में अब तक जो रस घुला हुआ है वह तो बना रहे। खैर छोडिये .... आइये सुनते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी की गायी यह कज़री- बदरिया घिरी आइल ननदी....
अब सुनिए फैज़ल की आवाज़ में सूरीनाम का यह भोजपुरी गीत- टप टप चुवेला पसीना सजन बिना ......
और अब फ़िल्म 'गंगा मईया तोहें पियरी चढ़ाइबो ' का शैलेन्द्र का लिखा गीत- काहे बसुरिया बजवले....
इब्ने-इंशा (१९२७-१९७८) कीग़ज़ल 'कलचौदहवींकीरातथी ' नजानेकबसेजगजीतसिंहऔरगुलामअलीकीआवाजोंमेंसुनतेआरहेंहैं. उनकी 'उर्दूकीआखिरीकिताब' नेकभीजिया-उल-हकसाहबकोनाराज़करदियाथाअपनेमारकव्यंगसे।उसकिताब की भूमिकामेंलिखाउनकाएकवाक्यअबभीजेहनमेंकौंधजाताहै- 'यहकिताबकेवलबालिगोंकेलिएहै, जेहनीतौरपरबालिगोंकेलिए'।वहकिताबतोमेरेकिसीसाहित्यरसिकदोस्तनेपारकरदीनहींतोआजदो-चारव्यंगआपकीनज़रकरता पर आइएआजसुनतेहैंइब्नेइंशाकाकलामआबिदाजीकीशानदारआवाजमें।आबिदाजीगायनकेबारेमेंकुछकहनेकीजरूरतनहींहैबससुनिएऔरआनंदलीजिये-
दिल इश्क में बे-पायां, सौदा हो तो ऐसा हो। दरिया हो तो ऐसा हो, सहरा हो तो ऐसा हो।
हमसे नहीं रिश्ता भी, हमसे नहीं मिलता भी, है पास वो बैठा भी, धोखा हो तो ऐसा हो।
वो भी रहा बेगाना, हमने भी ना पहचाना, हाँ ऐ दिले दीवाना, अपना हो तो ऐसा हो।
हमने यही माँगा था, उसने यही बख्शा है, बन्दा हो तो ऐसा हो, डाटा हो तो ऐसा हो।
इस दौर में क्या क्या है, रुसवाई भी लज्जत भी, कांटा हो तो ऐसा हो, चुभता हो तो ऐसा हो।
ऐ क़ैस जुनूँ-पेशा, इंशा को कभी देखा, वहशी हो तो ऐसा हो, रुसवा हो तो ऐसा हो।
कुछ दिन पहले सिद्धेश्वर भाई ने अमीर खुसरो के बारे में ठीक ही लिखा था कि ''हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने।" तो फ़िर आज इन्ही संगीतकारों की ओर से इस महान साहित्यकार और संगीतकार की दो रचनाएँ मैं आप को सुनवाता हूँ। लेकिन चलिए पहले अमीर खुसरो के कुछ दोहे फ़िर से पढ़े जाय -
खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार , जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।
खुसरो बाज़ी प्रेम की, मैं खेलूँ पी के संग, जीत गई तो पीया मेरे, हारी पी के संग।
खुसरो रैन सुहाग की, मैं जागी पी के संग, तन मोरा मन पीया का दोनों एक ही रंग।
भाई रे मल्लाह जो हमको पार उतार, हाथ का देवूँगी कंगना, गले का देवन हार।
अपनी छब बनाई के मैं पी के पास गई जो छब देखि पीहू की मैं अपनी भूल गई।
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केश चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देश।
पहले उस्ताद नुसरत फतह अली खान की आवाज़ में - 'रंग'
अब पेश है उस्ताद राशिद खान की आवाज़ में - 'नैना अपने पिया से लगा आई रे....'
हाँ आमिर खुसरो पर बहुत सारी सामग्री इस वेब साईट पर उपलब्ध है- कभी जाइए-
पिछलेदिनोंदेशमेंजोकुछहुआऔरउसपरहमारेराजनैतिकप्रतिष्ठानकीजो प्रतिक्रया रहीउससेहमसबकामनखिन्नहै।जीवनतोचलताहीहैपरकुछनकुछबदलजरूरजाताहै।फ़िरबहारेंआएँगीउजडेचमनकीशाखपर, पर खूनकेधब्बेधुलेंगेंकितनीबरसातोंकेबाद..... दुआकरेंकिऐसाफ़िरकभीनहो, कहींनहो।सिद्धेश्वरजीकाआदेशहैकीकुछऐसासुनवायाजाय जिससे खिन्नता मिटे ।आदेशकापालनतोकरनाहीहै।पेशहैएकबारफ़िरवडालीबंधुबाबाबुल्लेशाहकेकलामकेसाथ। 'कदी आ मिल यार .......' वडाली बंधु इस गीत में अपने गायन से हमें एक दूसरी ही दुनिया में ले जाते हैं। लीजिये आप भी अनुभव कीजिये-