आइए आज सुनते हैं बहादुर शाह 'ज़फ़र' का क़लाम मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में। सन १९६० में बनी फ़िल्म 'लाल किला' के इस गीत का संगीत तैयार किया था एस एन त्रिपाठी ने। राग मिश्र शिवरंजिनी पर आधारित इस गीत को रफ़ी साहब ने जिस ठहराव और नियंत्रण से गाया है वह उनकी ही प्रतिभा से सम्भव था। कहते हैं इस ग़ज़ल को बहादुर शाह 'ज़फ़र' ने रंगून में जेल की दीवार पर कोयले से लिखा था। रफ़ी साहब की गायकी ने अन्तिम मुग़ल बादशाह की तमाम निराशा को सजीव कर दिया है।
6 comments:
bahadur shah ka yah pyara kalaam rafi ji ki madhur awwaaj me sunane ke liye dhanayawad.
अजीब है ये ग़ज़ल. तीस सालों से सुनता रहा हूँ ... आज भी असर वही है ...
बार-बार सुनी परंतु बार-बार सुनने को जी चाहे.
bol anmol hain.....phir bhi apni kami kahuungi ki is NAYAAB AAVAZ me ye gazal mujhey aajtak raas nahi aayi...jaaney kyu..
मेरी भी ये पसंदीदा गजल है और जितनी भी बार सुना वैसा ही असर हुआ जैसा पहली बार सुनने में हुआ था। इस गजल को फ़िर से सुनवाने के लिए आभार
भाई सिंह जी
मैं कब से किसी ऐसे ब्लाग की तलाश में था जहां इस तरह के संगीत का खजाना मिले। आज मेरी तलाश पूरी हुई। शुक्रिया
सूरज
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