कजरी की चर्चा होते ही मुझे अपने गृह जनपद मिर्जापुर की याद आ जाती है। कजरी आख़िर है भी मूल रूप से मिर्जापुर और बनारस का लोक गीत। किवदंती के अनुसार एक बिरहिणी द्वारा देवी माँ से अपनी व्यथा कहने से कजरी की शुरुआत हुई। रिम-झिम फुहार पड़ रही हो , शाखों पर झूले पड़ गए हों और प्रिय साथ न हो ........ ख़ुद ब ख़ुद होंठों से फ़ुट पड़ती है कजरी । अनेक प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों ने कजरी गयी है। सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी , छन्नू लाल मिश्र और शोभा गुर्टू जी ने अपने गायन से कजरी को समृद्ध किया है। आज मैं आप को उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब की बजाई कजरी धुन सुनवाता हूँ.....मिर्जापुर कइल गुलजार कचौड़ीगली सून कइल बलमू...
8 comments:
बहुत अच्छा..... परम्पराएं जीवित रहे .....इसके लिए कुछ तो करना ही होगा।
क्या बात है भाई. आनंद ...
ए भइया ई का होखे लागल हो ! एसहीं संगीत में डूबे -उतिराए के मीलत रही त जिनिगी में बहार बनल रही. और का चाहीं!
बहुते बढ़िया, नीमन ,जब्बर!!!
एसबी भाई,
तबियत चक कर दी आपने.
और लाजवाब फ़ोटो ...क्या कहने.
shukriya kazri ki is dhun ko pesh karne ka. achcha laga sunkar
वाह बंधुवर..
क्या बात है...
मजा आ गया....
झकाझोर। करेजवा तर। चंपल रहा (सप्रेम)।
jankari bahot achhi hai purani yade taja ho jati hai umar ka pedav yad ata hai jivan tham sa jata hai gaun ye man chata hai
satbir
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