Saturday, October 11, 2008

एक मैथिली कविता -


पुरानी किताबें पलटते पलटते 'समकालीन भारतीय साहित्य' का एक अंक (अक्टूबर-दिसम्बर, 1995) हाथ लग गया। पन्ने पलटते इस कविता पर नज़र पड़ गई । इसे आप से बांटने का लोभ नहीं संवरण कर पा रहा हूँ। देखिये इतने साल बाद भी यह कविता कितनी सामयिक लगती है। समय शायद बदलता नहीं वह पलट पलट कर वापस आता है। नवीन कुमार दास की इस कविता का अनुवाद किया है केदार कानन ने ।





मिटती नहीं हैं उम्मीदें

सुहाता नहीं पानी का शोर
मगर सुहाता है
शोर आसमान का
उड़नखटोले का
जिससे कभी-कभी गिरते हैं
सत्तू के ठोंगे
और तृप्त कर देती है
चने-खेसारी की भखराई महक
ये कोसी मैया की बाहें हैं
और इस में सचमुच रहते हैं लोग ही
जो न आदिमानव हैं
न प्रस्तरयुगीन
ये इनसेट और अपोलो अस्पताल युग के ही लोग हैं

बाहर के लोग यहाँ नहीं आते
चुनाव के समय भी नहीं
वोट होता है, सुनते हैं नाव पर ही
ना ही कहीं और जाने को तैयार होते हैं ये
क्योंकि छिन्न होती नदी के साथ
छिन्न होती जाती हैं चिंताएँ
आँगन में सूखता है रिलीफ़ का गेहूं
और ओसारे -टाट -छप्पर तक
फ़ैल जाती है ज़िन्दगी
घुन कि शक्ल में
सूखते गड्ढों से मार लाते हैं बच्चे
पोठी गरइ चेंग मछलियाँ और केकड़े
जब आग में पकाए जाते हैं
तो उबकाती रोटी के साथ
स्वाद को जीत लेते हैं

घटते नहीं कंचू के पत्ते
मिटते नहीं कंचू के कंदे
ना ही मिटती है उम्मीदें
सेम कि लताओं के साथ
पसर जाती है हरियाली
तार-तार हुए मन-प्राण पर

इस बार
यदि सुतर गया
तो ललौंछ भदैया भात के साथ
पटुआ साग
और सुसुआही मिर्चों के दिन
चमकने लगते हैं
पसरे हुए चकमक बालू पर ।

2 comments:

Unknown said...

बहुत सजीव कविता । आखों के सामने सम्पूर्ण चित्र घूम गया । बधाई आपको इस रचना के लिए

Ashok Pande said...

सुकान्त भट्टाचार्य की याद दिलाती है यह कविता. बहुत जानदार पेशकश.

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