पेश है आबिदा परवीन की 'जाना' । उनकी गायकी के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। जिस तल्लीनता से वे गाती हैं वह अद्वितीय है। अपनी शानदार आवाज़ में वे गायन को एक नया मायने देती हैं चाहे सूफी संगीत हो चाहे ग़ज़ल । वे स्वरों का जो सम्मोहन रचती हैं वह आपको एक और ही दुनिया में ले जाता है। बस सुनते जाइए और रस में डूबते जाइए।
लहू लहू है हर एक संग-ए-रहगुज़र जाना,
हुआ न ख़त्म मेरे दर्द का सफ़र जाना।
ए और बात के तू दिल की धड़कनों में रहा,
तलाश फ़िर भी किया तुझ को उम्र भर जाना
के शहर भर ने तो चहरे का कर्ब देखा है
जो दिल पे गुजरी है उसकी किसे ख़बर जाना।
बिछड़ के तुझसे तो लम्हे भी माह-ओ-साल हुए
ए उम्र कहने को थी कितनी मुख्तसर जाना
हुआ न ख़त्म मेरे दर्द का सफ़र जाना।
ए और बात के तू दिल की धड़कनों में रहा,
तलाश फ़िर भी किया तुझ को उम्र भर जाना
के शहर भर ने तो चहरे का कर्ब देखा है
जो दिल पे गुजरी है उसकी किसे ख़बर जाना।
बिछड़ के तुझसे तो लम्हे भी माह-ओ-साल हुए
ए उम्र कहने को थी कितनी मुख्तसर जाना
12 comments:
dil ko chhune wali gazal,bahut sundar
ये 'ज़ाना' लफ्ज़ न जाने कैसे मोहतरमा अरुणा राय को बर्दाश्त हो गया कि उन्होंने तारीफ़ भी कर दी. मेहरबानी करके 'ज़ाना' से नुक़ता हटाइए और 'जाना' लिखिए
भाई साहब इतना नाराज होने की जरूरत नहीं है। मेरी लापरवाही के बावजूद आबिदा जी की गायी यह ग़ज़ल तारीफ़ के काबिल ही रहेगी।
निश्चित रूप से तारीफ के काबिल.'कबीर' वाले अलबम में गुलजार कहते हैं कि 'आबिदा परवीन की आवाज ,इबादत की आवाज है.' इसमें कोई शुबह नहीं. हमेशा की तरह उम्दा और स्तरीय है आपकी यह प्रस्तुति.
रही बात नुक्ते की तो- हर्ष जी बात ठीक है किन्तु नुक्ते का मसला संगीद-शायरी के आस्वादन में अवरोध न बने तथा (.) के कारण उर्दू-हिन्दी के बीच के पुल पर अवागमन रुके , मैं इस बात का हामी नहीं.
अद्भुत्……………
सिंह साहब, बुरा न मानिए, क्या करें बुज़ुर्गों ने कान इतने ख़राब कर दिए कि ज़रा भी २० का १९ बर्दाश्त नहीं हो पाता. मेरा मक़सद सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके इस पोस्ट में खटकती हुयी एक छोटी सी चीज़ को हटा कर पूरी तरह लुत्फ़-आमोज़ (आनंदमयी) बनाने का था. इसमें दो राय नहीं कि ग़ज़ल भी बहुत सुंदर है और आबिदा ने निभाया भी बहुत ख़ूब है. अपना ये काम जारी रखिये, मैं आपके साथ हूँ. उम्मीद है मेरे comment को बतौर एक स्वस्थ आलोचना लेंगे. रही बात सिद्धेश्वर साहब की, तो मैं उनसे ये कहना चाहूँगा कि कोई भी भाषा सिर्फ़ व्याकरण ही नहीं, संस्कार से भी सजती है.
हर्ष जी,
मुझे खुशी है कि आप भाषा को लेकर बहुत संवेदनशील है.आज के इस क्रूर समय में यह बहुत बड़ी बात है. आपसे परिचय होना सुखद रहेगा. दोस्त, कभी हमारी गली में भी आओ न?
सादर-
सिद्धेश्वर सिंह
aabhaar...ye cheez hi aisi hai...hazaron baar suni...aur hazaron baar suni jaane vaali
bahut achha blog hai kafi mehnat kar rahe aap. kajri ke bare padhkar maja aya
Comments तो बहुत पढ़ लिये। कोई इतनी मेहरबानी कर सकता है की शायर का नाम भी बता दे. अज्ञात है तो भी इस बात का पता लगना चाहिए. ग़ज़ल संगीत बाद में होती है पहले तो शायर की लफ़्ज़ों से पिरोयी माला है. किस की ग़ज़ल को आबिदा जी ने इतनी खूबसूरती से गाया है ?
Thanks I’m advance 🙏
I meant . . . ‘ Thanks in advance’
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