आज पढ़ते हैं उर्दू के आधुनिक शायर अमीर आगा़ कज़लबाश की कुछ मेरी पसंदीदा गज़लें। अमीर की शायरी आज की जिंदगी की शायरी है। उसमें जहाँ हमारे दुःख दर्द मौजूद हैं वहीं निजता की पहचान भी है। इस 'तेज रफ़्तार मुसाफिर' की दो गज़लें आपकी नज़र हैं-
मेरे नसीब में मेरी अना1 को ज़िंदा लिख
कभी न टूट सके मुझ से मेरा रिश्ता लिख
बिखरते - टूटते रिश्तों की पासदारी कर
और अपने आपको अपने लिए पराया लिख
ये तेरी आख़िरी साँसें है कुछ तो मुंह से बोल
अजीम शख्स कोई आख़िरी तमन्ना लिख
किसी के जिस्म पे चेहरा नज़र नहीं आता
हजूम शहर की बेचेहरगी का नोहा लिख
यह राह आग के दरिया की सिम्त जाती है
क़दम बढाते हुए राहरौ को अंधा लिख
उदास शाम की दहलीज़ पर चरागाँ कर
नहीं है क़िस्मते इमरोज़ में सवेरा लिख
****************************************
ज़ुल्मत के तलातुम २ से उभर क्यों नहीं जाते
उतारा हुआ दरिया है गुज़र क्यों नहीं जाते
बादल हो तो बरसों कभी बेआब ज़मीन पर
खुशबू हो अगर तुम तो बिखर क्यों नहीं जाते
जब डूब ही जाने का यकीं है तो न जाने
ये लोग सफी़नों से उतर क्यों नहीं जाते
रोकेगी दरख्तों की घनी छावं सरे राह
आवाज़ सी आयेगी ठहर क्यों नहीं जाते
अब अपने ही साए के तआकुब 3 में निकल जाओ
जीने की तमन्ना है तो मर क्यों नहीं जाते
तू राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यों नहीं जाते
हर बार हमीं हैं हदफ़े-संगे-मलामत4
इल्जाम किसी और के सर क्यों नहीं जाते
१=आत्मसम्मान २= उथल पुथल ३= पीछा करना ४= दोषारोपण के पत्थरों के निशाने पर
11 comments:
यह राह आग के दरिया की सिम्त जाती है
क़दम बढाते हुए राहरौ को अंधा लिख
****************************************
अब अपने ही साए के तआकुब 3 में निकल जाओ
जीने की तमन्ना है तो मर क्यों नहीं जाते
तू राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यों नहीं जाते...padhvaaney ka shukriyaa
अमीर आगा़ कज़लबाश को शायद पहली बार पढ़ा. उम्दा शायरी.
मज़ा आ गया भई
---
चाँद, बादल और शाम
बहुत आभार इस प्रस्तुति का:
अब अपने ही साए के तआकुब 3 में निकल जाओ
जीने की तमन्ना है तो मर क्यों नहीं जाते
-वाह!! आनन्द आ गया.
भाई बहुत बढ़िया गज़लें ...... शुक्रिया पढ़वाने का.
बहुत अच्छी गज़लें। पेश करने का शुक्रिया।
ये तेरी आख़िरी साँसें है कुछ तो मुंह से बोल
अजीम शख्स कोई आख़िरी तमन्ना लिख
किसी के जिस्म पे चेहरा नज़र नहीं आता
हजूम शहर की बेचेहरगी का नोहा लिख
शुक्रिया पढ़वाने का.
जब डूब ही जाने का यकीं है तो न जाने
ये लोग सफी़नों से उतर क्यों नहीं जाते
अब अपने ही साए के तआकुब में निकल जाओ
जीने की तमन्ना है तो मर क्यों नहीं जाते
तू राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यों नहीं जाते
**********************
अमीर साहब का नाम बहुत सुना। मगर आपके ज़रिए पता चला कि यह नाम खामख्वाह नहीं है।
बेहद उम्दा शेर लगा ये।
किसी के जिस्म पे चेहरा नज़र नहीं आता
हजूम शहर की बेचेहरगी का नोहा लिख
वैसे पहली बार पढ़ा इन्हें। शुक्रिया
ये तेरी आख़िरी साँसें है कुछ तो मुंह से बोल
अजीम शख्स कोई आख़िरी तमन्ना लिख
sabhi gazale ek se badkar hai...
Post a Comment