(१)
क्या कहूं हाले दर्दे-पिन्हा़नी
वक्त कोताह किस्सा तूलानी
ऐशे-दुनिया से हो गया दिल सर्द
देख कर रंगे-आलमे-फ़ानी
कुछ नहीं जुज़ तिलिस्म-ख्वाबो-ख़याल
गोशे- फ़क्रो-बज़्मे-सुल्तानी
है सरासर फ़रेबे-वहमों-गुमाँ
ताजे-फ़ग़फ़ूरो-तख्ते-खा़कानी
बे-हकी़क़त है शक्ले-मौजे-सराब
जामे-जमशेद व राहे-रैहानी
लफ़्ज़े-मुहमल है नुत्के़-आराबी
हर्फ़े-बातिल है अ़क्ले-यूनानी
एक धोका है लह्ने-दाऊदी
एक तमाशा है हुस्ने-कन्आनी
न करुँ तिश्नगी में तर लबे-खुश्क
चश्मः-ए-खिज़्र का हो गर पानी
लूँ न इकमुश्त ख़ाक के बदले
गर मिले खा़तिमे-सुलैमानी
बहरे- हस्ती बजुज़ सराब नहीं
चश्मः-ए-ज़िन्दगी में आब नही।
(२)
जिससे दुनिया ने आशनाई की
उसने आख़िर को कज़-अदाई की
तुझ पे भूले कोई अबस ऐ उम्र
तूने की जिससे बेवफाई की
है ज़माना वफ़ा से बेगाना
हाँ कसम मुझको आशनाई की
यह वह बे-मेहर है की इसकी
सुलह में चाशनी लड़ाई की
है यहाँ हज़्जे़-वस्ल से महरूम
जिसको ताक़त न हो जुदाई की
है यहाँ हिफ़्ज़े-वजा़ से मायूस
जिसको आदत न हो गदाई की
खंदः-ए-गुल से बेबका़-तर है
शान हो जिसमें दिलरुबाई की
जिन्स-ए-कासिद से नारवातर है
खूबियाँ जिसमें हो खुदाई की
बात बिगड़ी रही सही अफसोस
आज खा़कानी व सनाई की
रश्के-उर्फी व फ़ख्रे-तालिब मुर्द
असद उल्लाह खाँ गालिब मुर्द
(३)
बुलबुले-हिंद मर गया हैहात
जिसकी थी बात बात में एक बात
नुक्तादां, नुक्तासंज, नुक्ताशनास
पाक दिल, पाक जात, पाक सिफ़ात
शैख़ और बज़्ला-संजो-शोख़ मिज़ाज
रिंद और मर्जा-ए-करामो-सेका़त
लाख मज़मून और उसका एक ठठोल
सौ तकल्लुफ़ और उसकी सीधी बात
दिल में चुभता था वह अगर बिस्मिल
दिन को कहता दिन और रात को रात
हो गया नक़्श दिल पे जो लिक्खा
कलम उसका था और उसकी दवात
थीं तो दिल्ली में उसकी बातें थीं
ले चलें अब वतन को क्या सौगा़त
उसके मरने से मर गई दिल्ली
मिर्ज़ा नौशा था और शहर बरात
याँ अगर बज़्म थी तो उसकी बज़्म
याँ अगर ज़ात थी उसकी ज़ात
एक रौशन-दिमाग़ था , न रहा
शहर में इक चिराग़ था, न रहा
(४)
दिल को बातें जब उसकी याद आएँ
किसकी बातों से दिल को बहलाएं
किसको जाकर सुनाएँ शे'रो-ग़ज़ल
किससे दादे-सुखनवरी पाएँ
मर्सिया उसका लिखते हैं एहबाब
किससे इस्लाह लें, किधर जाएँ
पस्त मज़मून है नौहा-ए-उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुंचाएं
लोग कुछ पूछने को आए हैं
अहले-मय्यत जनाज़ा ठहराएं
लायेंगे फिर कहाँ से ग़ालिब को
सूए-मदफ़न अभी न ले जाएँ
उसको अगलों में क्यूं न देन तरजीह
अहले इंसाफ़ गौ़र फ़रमायें
कुदसी व साइब व असीर व कलीम
लोग जो चाहें उनको ठहराएं
हमने सबका कलाम देखा है
है अदब शर्त मुँह न खुलवाएं
गालिबे-नुक्तादां से क्या निस्बत
ख़ाक को आसमाँ से क्या निस्बत
(५)
नस्र, हुस्नो-जमाल की सूरत
नज़्म, गंजो-दलाल की सूरत
तहनियत इक निशात की तस्वीर
ताज़ियत इक मलाल की सूरत
का़ल उसका वह आइना जिसमें
नज़र आती थी हाल की सूरत
इसकी तौजीह से पकड़ती थी
शक्ले-इम्काँ महाल की सूरत
इसकी तावील से बदलती थी
रंगे-हिज्राँ विसाल की सूरत
लुत्फे-आगाज़ से दिखाता था
सुखन इसका मआल की सूरत
चश्मे-दौरान से आज छुपती है
अनवरी व कमाल की सूरत
लौहे-इम्काँ से आज मिटती है
इल्मों -फ़ज़्लो-कमाल की सूरत
देखा लो आज फिर न देखोगे
गा़लिबे-बेमिसाल की सूरत
अब न दुनिया में आएँगे यह लोग
कहीं ढूंढें न पाएँगे यह लोग
..............................................शेष पाँच बंद अगली पोस्ट में
(नुक्ते लगाने हुई भूलों के लिए माफ़ी के साथ)
(नुक्ते लगाने हुई भूलों के लिए माफ़ी के साथ)
6 comments:
बहुत आभार इस प्रस्तुति का.
adab ki is khidmat ke liye aabhaar!
चचा असद की बात ही कुछ और
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
भई वाह सिंह साहब................ इस प्रस्तुति के विशेष आभार.........
बहुत दुर्लभ और नायाब पेशकश सिंह साहब. शुक्रिया.
bahoot khoob -- aabeer
http://aabeer.blogspot.com/
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