फ़िराक़ गोरखपुरी वो नाम जिसने उर्दू शायरी को एक नया आशिक दिया और एक नया माशूक भी। फ़िराक़ के काव्य में ' दो शरीर मात्र ही एक दूसरे का साक्षात्कार नहीं करते, बल्कि दो दिमाग भी गुंथे हुए हैं। उनका 'आशिक़' जहाँ अपनी प्रबुद्धता और अपने दिमाग का आदर करता है वहीं वह महबूब के दिमाग का भी कायल है।' उनकी शायरी का प्रेरक इश्क़ तो है पर वह सिर्फ़ इश्क़ की नहीं, पूरे विवेक की शायरी है । फ़िराक़ की यह बौद्धिकता उन्हें औरों से अलग कराती है और उन्हें बड़ा शायर बनाती है। वे मेरे सबसे पसंदीदा कवियों में से हैं। पहले पेश हैं उनके कुछ शेर -
मेरा अक़ीदा है " दुनिया बनाम ख़ुल्दे-बरीं"
हज़ार शुक्र मुझे काबिशे-सवाब नहीं।
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं।
***
हज़ार शुक्र मुझे काबिशे-सवाब नहीं।
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं।
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अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझसे
अब न बात ग़मे-हिज्र के अफ़सानों में ।
अब तेरा काम है बस अहले-वफ़ा का पाना
अब तेरा नाम है बस इश्क़ के ग़मखानों में।
अब न बात ग़मे-हिज्र के अफ़सानों में ।
अब तेरा काम है बस अहले-वफ़ा का पाना
अब तेरा नाम है बस इश्क़ के ग़मखानों में।
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यूँ तो हर इक का हुश्न काफ़िर है
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
हुश्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी नहीं मिलती।
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
हुश्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी नहीं मिलती।
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और अब उनकी नज़्म 'जुगनू' से कुछ लाईने जो उस माँ के लिए हैं जो उसके पैदा होते ही मर गई-
......सुकूत रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार
कभी-कभी तेरी पायल की आती है झंकार।
मैं जुगनू बनके तो तुझ तक पहुँच नहीं सकता
जो तुझसे हो सके ऐ माँ तू वो तरीक़ा बता।
तू जिसको पा ले वो कागज़ उछाल दूँ कैसे
ये नज़्म मैं तेरे कदमों में डाल दूँ कैसे !
(पूरी नज़्म फ़िर कभी)
आइये सुनते हैं जगजीत सिंह की आवाज़ में यह ग़ज़ल - ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात ....
अब इसी ग़ज़ल को तलत महमूद की आवाज़ में सुनते हैं-
अब इसी ग़ज़ल को तलत महमूद की आवाज़ में सुनते हैं-
9 comments:
आपका आभारी हूँ जो आपने ऐसी हस्ती की कुछ गज़लें और नज़्म पढने को मिली मगर वो नज़्म आप पुरा कर देते माँ वाली तो एहसान मंद होता ........ ग़ज़ल सुनके मुग्ध हो गया आपको ढेरो बधाई ..
बहुत ख़ूब. फ़िराक़ का एक शेर याद आ गया पढ़ते पढ़ते :
"ये दुनिया छूटती है, मेरे ज़िम्मे कुछ न रह जाए
बता ऐ मंज़िल-ए-हस्ती तेरा कितना निकलता है"
bahut khuubsurat post hai...is waqt sun ney ka mazaa hi aur hai phir..bahut shukriyaa
बढ़िया प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें मेरे भाई
kya baat hai lutf aa gaya bahut dinon baad is ghazal ko sunkar.
aur haan singh sahab
मेरा अक़ीदा है " दुनिया बनाम ख़ुल्दे-बरीं"
हज़ार शुक्र मुझे काबिशे-सवाब नहीं।
iska arth theek samajh nahin aaya batane ka kashta karein.
मनीष जी मेरी समझ से इसका अर्थ है-
'मेरी श्रद्धा स्वर्ग के मुकाबले इस दुनिया में है । मैं पुण्य की प्राप्ति की कोशिश में नहीं हूँ। '
बाकी विद्वान लोग जानें।
ब्लॉग पर आने का शुक्रिया।
pahali baar aai aap ke blog par... bahut sundar..!player gadbad hone se nazm sun na saki...! lekin is nazm ke bare me jaankari nahi thi..bahut sundar bol... kya iske lyrics kahi.n mil sakte hai...???
क्या कहूँ?
आपकी पसंद और प्रस्तुति के लिए .राह मिलती है मेरे भाई!
wah bhai mazaa agayaa
pasand waqai lajawaab hai aapki
kuch mushkil zaroor tha samjhna per samjh kar jhoom uthe
take care
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