आइये आज फ़िर जिक्र करें महान शायर फ़िराक गोरखपुरी साहब का। यह उस शायर का जिक्र है जो हजार खराबियों के बाद भी जिंदगी को खुल्दे-बरीं पर तरजीह देता है। जो जिंदगी का शायर है, विवेक का शायर है। जो प्रेम को शारीरिक रति मात्र से निकाल कर उस बौधिक धरातल पर ले जाता है जहाँ भाव और विचार एकमेव हो जाते हैं। फ़िराक का प्रेम एक कोरी भावुकता नहीं एक विवेकशील अनुभूति है । उनकी शायरी केवल आह-आह और वाह-वाह की कविता नहीं बल्कि जीवन और समाज को गहरे तक रेखांकित करती है । पेश हैं फ़िराक के कुछ शे'र-
हिन्दी के एक लोकगीत के बोल है -
जल मा चमके उजारी मछरिया, रन चमके तरवार,
सभा में चमके मोरे सैयां की पगडिया, सेजिया पे बिंदिया हमार।
फ़िराक साहब ने इसी ले में एक नज़्म कही है -तराना-ए-इश्क ---
जलवा-ए-गुल को बुलबुल बहुत है शमा को गिरा-ए-शाम
बाड़े-बहारी गुल को बहुत है मुझ को तेरा नाम ।
बिजली चमके काली घटा में जाम में आतशे-सर्द
चमके राख जोगी की जता में मुझमें तेरा दर्द।
शाख पर शोल-ए-गुल की लपक हो चर्ख प अन्जुमो-माह
दुनिया पर सूरज की चमक हो मुझ पर तेरी निगाह।
*********************************
बस इक सितारा-ए-शंगर्फ़1 की जबीं प झमक
वो चाल जिससे लबालब गुलाबियाँ छलकें
सुकूं नुमा खमे-आबरू ये अधखुली पलकें
हर इक निगाह से ऐमन की बिजलियाँ लपके
ये आँख जिसमें कई आशमा दिखाई पड़ें
उड़ा दे होश वो कानों की सादा सादा लावें
घतायं वज्द में आयें ये गेसुओं की लटक !
ये कैफों-रंग नज़ारा ये बिजलियों की लपक
कि जैसे कृष्ण से राधा कि आँख इशारे करे
वो शोख इशारे कि रब्बानियत2 भी जाए झपक
जमाल सर से कदम तक तमाम शोला है
सुकूनो-जुम्बिशो-रम तक तमाम शोला है
मगर वो शोला कि आंखों में दाल दे ठंडक।
***********************************
है अभी माहताब बाक़ी और बाक़ी है शराब
और बाक़ी तेरे मेरे दरम्याँ सदहा3 हिसाब।
दिल में यूँ बेदार4 होते है ख़यालाते-ग़ज़ल
आँख मलते जिस तरह उट्ठे कोई मस्ते-शबाब।
चूड़ियाँ बजती है दिल में, मरहबा5, वज़्मे-ख़याल
खिलते जाते हैं निगाहों में जबीनों6 के गुलाब।
काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़
अहले-दिल भी तो हैं ऐ शैखे-ज़माँ , अहले-किताब।
एक आलम पर नहीं रहती हैं कैफ़ीयाते-इश्क़
गाह रेगिस्ताँ भी दरिया, गाह दरिया भी सुराब7।
आ रहा है नाज़ से सिम्ते-चमन को खशखिराम8
दोश पर वो गेशू-ऐ-शबगूं9 के मंडलाते साहब10।
हुस्न ख़ुद अपना नकीब, आंखों को देता है पयाम
आमद-आमद आफ़ताब, आमद दलीले-आफ़ताब।
अज़मते- तक़दीर-आदम अहले-मज़हब से न पूछ
जो मशिअत ने न देखे, दिल ने वो देखे हैं ख़ाब।
हर नज़र जलवा है हर जलवा नज़र, हैरान हूँ
आज किस बैतुलहरम11 में हो गया हूँ बारयाब12।
सर से पा तक हुस्न है साजे-नमू13 राज़-नमू14
आ रहा है एक कमसिन पर दबे पावों शबाब।
ऐ 'फ़िराक' उठती हैहैरत को निगाहें बा अदब
अपने दिल कि खिलावातों में हो रहा हूँ बारयाब।
१= लाल सितारा, २= ईश्वरत्व , ३= सैकड़ों, ४= जाग्रत, ५= धन्य हो, ६= माथा, ७= मृगत्रिष्णा, ८= अच्छी चाल वाला, ९= रात की तरह बाल वाला, १०= बादल, ११= अल्लाह का घर, १२= प्रवेश प्राप्त, १३= उत्पन्न गीत , १४= उत्पत्ति का मर्म,
हिन्दी के एक लोकगीत के बोल है -
जल मा चमके उजारी मछरिया, रन चमके तरवार,
सभा में चमके मोरे सैयां की पगडिया, सेजिया पे बिंदिया हमार।
फ़िराक साहब ने इसी ले में एक नज़्म कही है -तराना-ए-इश्क ---
जलवा-ए-गुल को बुलबुल बहुत है शमा को गिरा-ए-शाम
बाड़े-बहारी गुल को बहुत है मुझ को तेरा नाम ।
बिजली चमके काली घटा में जाम में आतशे-सर्द
चमके राख जोगी की जता में मुझमें तेरा दर्द।
शाख पर शोल-ए-गुल की लपक हो चर्ख प अन्जुमो-माह
दुनिया पर सूरज की चमक हो मुझ पर तेरी निगाह।
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बस इक सितारा-ए-शंगर्फ़1 की जबीं प झमक
वो चाल जिससे लबालब गुलाबियाँ छलकें
सुकूं नुमा खमे-आबरू ये अधखुली पलकें
हर इक निगाह से ऐमन की बिजलियाँ लपके
ये आँख जिसमें कई आशमा दिखाई पड़ें
उड़ा दे होश वो कानों की सादा सादा लावें
घतायं वज्द में आयें ये गेसुओं की लटक !
ये कैफों-रंग नज़ारा ये बिजलियों की लपक
कि जैसे कृष्ण से राधा कि आँख इशारे करे
वो शोख इशारे कि रब्बानियत2 भी जाए झपक
जमाल सर से कदम तक तमाम शोला है
सुकूनो-जुम्बिशो-रम तक तमाम शोला है
मगर वो शोला कि आंखों में दाल दे ठंडक।
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है अभी माहताब बाक़ी और बाक़ी है शराब
और बाक़ी तेरे मेरे दरम्याँ सदहा3 हिसाब।
दिल में यूँ बेदार4 होते है ख़यालाते-ग़ज़ल
आँख मलते जिस तरह उट्ठे कोई मस्ते-शबाब।
चूड़ियाँ बजती है दिल में, मरहबा5, वज़्मे-ख़याल
खिलते जाते हैं निगाहों में जबीनों6 के गुलाब।
काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़
अहले-दिल भी तो हैं ऐ शैखे-ज़माँ , अहले-किताब।
एक आलम पर नहीं रहती हैं कैफ़ीयाते-इश्क़
गाह रेगिस्ताँ भी दरिया, गाह दरिया भी सुराब7।
आ रहा है नाज़ से सिम्ते-चमन को खशखिराम8
दोश पर वो गेशू-ऐ-शबगूं9 के मंडलाते साहब10।
हुस्न ख़ुद अपना नकीब, आंखों को देता है पयाम
आमद-आमद आफ़ताब, आमद दलीले-आफ़ताब।
अज़मते- तक़दीर-आदम अहले-मज़हब से न पूछ
जो मशिअत ने न देखे, दिल ने वो देखे हैं ख़ाब।
हर नज़र जलवा है हर जलवा नज़र, हैरान हूँ
आज किस बैतुलहरम11 में हो गया हूँ बारयाब12।
सर से पा तक हुस्न है साजे-नमू13 राज़-नमू14
आ रहा है एक कमसिन पर दबे पावों शबाब।
ऐ 'फ़िराक' उठती हैहैरत को निगाहें बा अदब
अपने दिल कि खिलावातों में हो रहा हूँ बारयाब।
१= लाल सितारा, २= ईश्वरत्व , ३= सैकड़ों, ४= जाग्रत, ५= धन्य हो, ६= माथा, ७= मृगत्रिष्णा, ८= अच्छी चाल वाला, ९= रात की तरह बाल वाला, १०= बादल, ११= अल्लाह का घर, १२= प्रवेश प्राप्त, १३= उत्पन्न गीत , १४= उत्पत्ति का मर्म,
(पेंटिंग -बाबा शोभा सिंह)
अब पेश है जगजीत और चित्रा सिंह की आवाज़ में यह ग़ज़ल-