फ़िक्र मोमिन की, ज़ुबां दाग की, गालिब का बयाँ, मीर का रंगेसुखन हो तो ग़ज़ल होती है। सिर्फ़ अल्फाज़ ही मानी नहीं करते पैदा, ज़ज्बा-ऐ-खिदमत-ए-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।
Tuesday, January 27, 2009
बुलबुले हिंद मर गया...
पिछली पोस्ट में आपने अल्ताफ हुसैन हाली का लिखा मिर्जा ग़ालिब का मर्सिया पढा . पेश है उसी के आखिरी पाँच बंद -
(६)
शहर में जो है सोगवार है आज
अपना बेगाना अश्कबार है आज
नाज़िशे-ख़ल्क का महल न रहा
रिहलते-फ़ख्रे-रोज़गार है आज
था जमाने में एक रंगीन तबा
रुखसते-मौसम-बहार है आज
बारे-एहबाब जो उठाता था
दोशे-एहबाब पर सवार है आज
थी हर इक बात नीशतर जिसकी
उसकी चुप से जिगर फ़िगार है आज
दिल में मुद्दत से थी खलिश जिसकी
वही बर्छी जिगर के पार है आज
दिले-मुज़्तर को कौन दे तस्कीन
मातम-यारे-गमगुसार है आज
तल्खी-ए-गम कही नहीं जाती
जाने-शीरीं भी नागवार है आज
किसको लाते हैं बहरे-दफ़्न कि कब्र
हमातन चश्मे-इन्तिज़ार है आज
ग़म से भरता नहीं दिले-नाशाद
किससे खाली हुआ जहाँनाबाद
(७)
नक्दे-मानी का गंजदाँ न रहा
ख्वाने-मज़मून का मेज़बां न रहा
साथ उसके गई बहारे-सुखन
अब कुछ अंदेशा-ए-खिजां न रहा
हुआ एक एक कारवां सालार
कोई सालार-कारवां न रहा
रौनके-हुस्न था बयाँ उसका
गर्म-बाजार-गुलारुखाँ न रहा
इश्क़ का नाम उससे रौशन था
कैसो-फरहाद का निशाँ न रहा
हो चुकी हुस्नो-इश्क़ कि बातें
गुलो-बुलबुल का तर्जुमा न रहा
अहले-हिंद अब करेंगे किस पर नाज़
रश्के-शीराजो-इस्फ़हाँ न रहा
ज़िंदा क्यूं कर रहेगा नामे-मुलुक
बादशाहों का मदहख्वान न रहा
कोई वैसा नज़र नहीं आता
वह जमीं और वह आसमाँ न रहा
उठा गया था जो मायादारे-सुख़न
किसको ठहराएं अब मदार-सुख़न
(८)
क्या है वह जिसमें वह मर्देकार न था
इक ज़माना कि साज़गार न था
शाइरी का किया हक़ इसने अदा
पर कोई उसका हक्गुज़ार न था
बे-सिला मदह, शे'रे-बे-तहसीन
सुखन उसका किसी पे बार न था
नज़ारे-सेल थी जान तक, लेकिन
दराखुरे-हिम्मत-इक्तिदार न था
मुल्को-दौलत से बहरावर न हुआ
जान देने पे इख्तियार न था
खाकसारों से खाकसारी थी
सर्बुलान्दों से इन्किसार न था
ऐसे पैदा कहाँ हैं मस्तो-ख़राब
हमने माना कि होशियार न था
मज़हरे-शाने-हुस्ने-फितरत था
मानी-ए-लफ्जे-आदमीयत था
कुछ नहीं फर्क बागो-जिन्दां में
आज बाबुल नहीं गुलिस्तां में
(९)
शहर सारा बना है बीते-हुज़्न
एक यूसुफ़ नहीं जो कन्हान में
मुल्क यकसर हुआ है बेआईन
एक फलातून नहीं जो यूनाँ में
ख़त्म थी इक ज़बान पे शीरीनी
ढूँढते क्या हो सबो -रुम्मां में
हस्र थी इक बयाँ में रंगीनी
क्या धरा है अकीकों-मरजाँ में
लबे-जादू बयाँ हुआ खामोश
गोशे-गुल वा है क्यूं गुलिस्तां में
गोशे-मानी शुनो हुआ बेकार
मुर्ग क्यूं नाराज़ं है बुस्तां में
वह गया जिससे बज़्म थी रौशन
शमा जलती है क्यूं शबिस्ताँ में
न रहा जिससे था फरोगे-नज़र
सुरमा बनता है क्यूं सफ़ाहा में
माहे-कामिल में आगई ज़ुल्मत
आबे-हैवाँ पे छा गई ज़ुल्मत
(१०)
हिंद में नाम पायेगा अब कौन
सिक्का अपना बिठाएगा अब कौन
हमने जानी है इससे कदर-सलफ़
उन पर ईमान लाएगा अब कौन
उसने सब को भुला दिया दिल से
उसको दिल से भुलायेगा अब कौन
थी किसी की न जिसमें गुंजाइश
वह जगह दिल में पायेगा अब कौन
उससे मिलने को याँ हम आते थे
जाके दिल्ली से आयेगा अब कौन
मर गया कद्र्दाने-फहम-सुखन
शे'र हमको सुनाएगा अब कौन
मर गया तिश्नः-ए-मज़ाके-कलाम
हमको घर में बुलाएगा अब कौन
था बिसाते-सुख़न में शातिर एक
हमको चालें बताएगा अब कौन
शे'र में नातमाम है 'हाली'
ग़ज़ल इसकी बनाएगा अब कौन
(नुक्ते लगाने हुई भूलों के लिए माफ़ी के साथ)
Monday, January 19, 2009
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है...
कबाड़खाना पर ग़ालिब से सम्बंधित अनेक उम्दा पोस्ट पढ़ने को मिली। इसी सन्दर्भ में ग़ालिब के जीवनी लेखक अल्ताफ हुसैन हाली द्वारा अपने उस्ताद और समकालीन के निधन पर लिखे गए मर्सिये की याद आगई। तो आइये आज पढ़ते हैं ख्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली का लिखा जनाब मिर्जा़ असद उल्लाह खाँ ग़ालिब का मर्सिया................. इस संसार में सब कुछ नश्वर है। बुलंद से बुलंद और सुंदर से सुंदर वास्तु भी एक दिन नष्ट हो जातीं हैं परन्तु कुछ की कमी हमेशा बनी रहती है। और मिर्जा़ ग़ालिब उन्ही शख्सियतों में से एक हैं.......
(१)
क्या कहूं हाले दर्दे-पिन्हा़नी
वक्त कोताह किस्सा तूलानी
ऐशे-दुनिया से हो गया दिल सर्द
देख कर रंगे-आलमे-फ़ानी
कुछ नहीं जुज़ तिलिस्म-ख्वाबो-ख़याल
गोशे- फ़क्रो-बज़्मे-सुल्तानी
है सरासर फ़रेबे-वहमों-गुमाँ
ताजे-फ़ग़फ़ूरो-तख्ते-खा़कानी
बे-हकी़क़त है शक्ले-मौजे-सराब
जामे-जमशेद व राहे-रैहानी
लफ़्ज़े-मुहमल है नुत्के़-आराबी
हर्फ़े-बातिल है अ़क्ले-यूनानी
एक धोका है लह्ने-दाऊदी
एक तमाशा है हुस्ने-कन्आनी
न करुँ तिश्नगी में तर लबे-खुश्क
चश्मः-ए-खिज़्र का हो गर पानी
लूँ न इकमुश्त ख़ाक के बदले
गर मिले खा़तिमे-सुलैमानी
बहरे- हस्ती बजुज़ सराब नहीं
चश्मः-ए-ज़िन्दगी में आब नही।
(२)
जिससे दुनिया ने आशनाई की
उसने आख़िर को कज़-अदाई की
तुझ पे भूले कोई अबस ऐ उम्र
तूने की जिससे बेवफाई की
है ज़माना वफ़ा से बेगाना
हाँ कसम मुझको आशनाई की
यह वह बे-मेहर है की इसकी
सुलह में चाशनी लड़ाई की
है यहाँ हज़्जे़-वस्ल से महरूम
जिसको ताक़त न हो जुदाई की
है यहाँ हिफ़्ज़े-वजा़ से मायूस
जिसको आदत न हो गदाई की
खंदः-ए-गुल से बेबका़-तर है
शान हो जिसमें दिलरुबाई की
जिन्स-ए-कासिद से नारवातर है
खूबियाँ जिसमें हो खुदाई की
बात बिगड़ी रही सही अफसोस
आज खा़कानी व सनाई की
रश्के-उर्फी व फ़ख्रे-तालिब मुर्द
असद उल्लाह खाँ गालिब मुर्द
(३)
बुलबुले-हिंद मर गया हैहात
जिसकी थी बात बात में एक बात
नुक्तादां, नुक्तासंज, नुक्ताशनास
पाक दिल, पाक जात, पाक सिफ़ात
शैख़ और बज़्ला-संजो-शोख़ मिज़ाज
रिंद और मर्जा-ए-करामो-सेका़त
लाख मज़मून और उसका एक ठठोल
सौ तकल्लुफ़ और उसकी सीधी बात
दिल में चुभता था वह अगर बिस्मिल
दिन को कहता दिन और रात को रात
हो गया नक़्श दिल पे जो लिक्खा
कलम उसका था और उसकी दवात
थीं तो दिल्ली में उसकी बातें थीं
ले चलें अब वतन को क्या सौगा़त
उसके मरने से मर गई दिल्ली
मिर्ज़ा नौशा था और शहर बरात
याँ अगर बज़्म थी तो उसकी बज़्म
याँ अगर ज़ात थी उसकी ज़ात
एक रौशन-दिमाग़ था , न रहा
शहर में इक चिराग़ था, न रहा
(४)
दिल को बातें जब उसकी याद आएँ
किसकी बातों से दिल को बहलाएं
किसको जाकर सुनाएँ शे'रो-ग़ज़ल
किससे दादे-सुखनवरी पाएँ
मर्सिया उसका लिखते हैं एहबाब
किससे इस्लाह लें, किधर जाएँ
पस्त मज़मून है नौहा-ए-उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुंचाएं
लोग कुछ पूछने को आए हैं
अहले-मय्यत जनाज़ा ठहराएं
लायेंगे फिर कहाँ से ग़ालिब को
सूए-मदफ़न अभी न ले जाएँ
उसको अगलों में क्यूं न देन तरजीह
अहले इंसाफ़ गौ़र फ़रमायें
कुदसी व साइब व असीर व कलीम
लोग जो चाहें उनको ठहराएं
हमने सबका कलाम देखा है
है अदब शर्त मुँह न खुलवाएं
गालिबे-नुक्तादां से क्या निस्बत
ख़ाक को आसमाँ से क्या निस्बत
(५)
नस्र, हुस्नो-जमाल की सूरत
नज़्म, गंजो-दलाल की सूरत
तहनियत इक निशात की तस्वीर
ताज़ियत इक मलाल की सूरत
का़ल उसका वह आइना जिसमें
नज़र आती थी हाल की सूरत
इसकी तौजीह से पकड़ती थी
शक्ले-इम्काँ महाल की सूरत
इसकी तावील से बदलती थी
रंगे-हिज्राँ विसाल की सूरत
लुत्फे-आगाज़ से दिखाता था
सुखन इसका मआल की सूरत
चश्मे-दौरान से आज छुपती है
अनवरी व कमाल की सूरत
लौहे-इम्काँ से आज मिटती है
इल्मों -फ़ज़्लो-कमाल की सूरत
देखा लो आज फिर न देखोगे
गा़लिबे-बेमिसाल की सूरत
अब न दुनिया में आएँगे यह लोग
कहीं ढूंढें न पाएँगे यह लोग
(१)
क्या कहूं हाले दर्दे-पिन्हा़नी
वक्त कोताह किस्सा तूलानी
ऐशे-दुनिया से हो गया दिल सर्द
देख कर रंगे-आलमे-फ़ानी
कुछ नहीं जुज़ तिलिस्म-ख्वाबो-ख़याल
गोशे- फ़क्रो-बज़्मे-सुल्तानी
है सरासर फ़रेबे-वहमों-गुमाँ
ताजे-फ़ग़फ़ूरो-तख्ते-खा़कानी
बे-हकी़क़त है शक्ले-मौजे-सराब
जामे-जमशेद व राहे-रैहानी
लफ़्ज़े-मुहमल है नुत्के़-आराबी
हर्फ़े-बातिल है अ़क्ले-यूनानी
एक धोका है लह्ने-दाऊदी
एक तमाशा है हुस्ने-कन्आनी
न करुँ तिश्नगी में तर लबे-खुश्क
चश्मः-ए-खिज़्र का हो गर पानी
लूँ न इकमुश्त ख़ाक के बदले
गर मिले खा़तिमे-सुलैमानी
बहरे- हस्ती बजुज़ सराब नहीं
चश्मः-ए-ज़िन्दगी में आब नही।
(२)
जिससे दुनिया ने आशनाई की
उसने आख़िर को कज़-अदाई की
तुझ पे भूले कोई अबस ऐ उम्र
तूने की जिससे बेवफाई की
है ज़माना वफ़ा से बेगाना
हाँ कसम मुझको आशनाई की
यह वह बे-मेहर है की इसकी
सुलह में चाशनी लड़ाई की
है यहाँ हज़्जे़-वस्ल से महरूम
जिसको ताक़त न हो जुदाई की
है यहाँ हिफ़्ज़े-वजा़ से मायूस
जिसको आदत न हो गदाई की
खंदः-ए-गुल से बेबका़-तर है
शान हो जिसमें दिलरुबाई की
जिन्स-ए-कासिद से नारवातर है
खूबियाँ जिसमें हो खुदाई की
बात बिगड़ी रही सही अफसोस
आज खा़कानी व सनाई की
रश्के-उर्फी व फ़ख्रे-तालिब मुर्द
असद उल्लाह खाँ गालिब मुर्द
(३)
बुलबुले-हिंद मर गया हैहात
जिसकी थी बात बात में एक बात
नुक्तादां, नुक्तासंज, नुक्ताशनास
पाक दिल, पाक जात, पाक सिफ़ात
शैख़ और बज़्ला-संजो-शोख़ मिज़ाज
रिंद और मर्जा-ए-करामो-सेका़त
लाख मज़मून और उसका एक ठठोल
सौ तकल्लुफ़ और उसकी सीधी बात
दिल में चुभता था वह अगर बिस्मिल
दिन को कहता दिन और रात को रात
हो गया नक़्श दिल पे जो लिक्खा
कलम उसका था और उसकी दवात
थीं तो दिल्ली में उसकी बातें थीं
ले चलें अब वतन को क्या सौगा़त
उसके मरने से मर गई दिल्ली
मिर्ज़ा नौशा था और शहर बरात
याँ अगर बज़्म थी तो उसकी बज़्म
याँ अगर ज़ात थी उसकी ज़ात
एक रौशन-दिमाग़ था , न रहा
शहर में इक चिराग़ था, न रहा
(४)
दिल को बातें जब उसकी याद आएँ
किसकी बातों से दिल को बहलाएं
किसको जाकर सुनाएँ शे'रो-ग़ज़ल
किससे दादे-सुखनवरी पाएँ
मर्सिया उसका लिखते हैं एहबाब
किससे इस्लाह लें, किधर जाएँ
पस्त मज़मून है नौहा-ए-उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुंचाएं
लोग कुछ पूछने को आए हैं
अहले-मय्यत जनाज़ा ठहराएं
लायेंगे फिर कहाँ से ग़ालिब को
सूए-मदफ़न अभी न ले जाएँ
उसको अगलों में क्यूं न देन तरजीह
अहले इंसाफ़ गौ़र फ़रमायें
कुदसी व साइब व असीर व कलीम
लोग जो चाहें उनको ठहराएं
हमने सबका कलाम देखा है
है अदब शर्त मुँह न खुलवाएं
गालिबे-नुक्तादां से क्या निस्बत
ख़ाक को आसमाँ से क्या निस्बत
(५)
नस्र, हुस्नो-जमाल की सूरत
नज़्म, गंजो-दलाल की सूरत
तहनियत इक निशात की तस्वीर
ताज़ियत इक मलाल की सूरत
का़ल उसका वह आइना जिसमें
नज़र आती थी हाल की सूरत
इसकी तौजीह से पकड़ती थी
शक्ले-इम्काँ महाल की सूरत
इसकी तावील से बदलती थी
रंगे-हिज्राँ विसाल की सूरत
लुत्फे-आगाज़ से दिखाता था
सुखन इसका मआल की सूरत
चश्मे-दौरान से आज छुपती है
अनवरी व कमाल की सूरत
लौहे-इम्काँ से आज मिटती है
इल्मों -फ़ज़्लो-कमाल की सूरत
देखा लो आज फिर न देखोगे
गा़लिबे-बेमिसाल की सूरत
अब न दुनिया में आएँगे यह लोग
कहीं ढूंढें न पाएँगे यह लोग
..............................................शेष पाँच बंद अगली पोस्ट में
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