फ़िराक़ गोरखपुरी वो नाम जिसने उर्दू शायरी को एक नया आशिक दिया और एक नया माशूक भी। फ़िराक़ के काव्य में ' दो शरीर मात्र ही एक दूसरे का साक्षात्कार नहीं करते, बल्कि दो दिमाग भी गुंथे हुए हैं। उनका 'आशिक़' जहाँ अपनी प्रबुद्धता और अपने दिमाग का आदर करता है वहीं वह महबूब के दिमाग का भी कायल है।' उनकी शायरी का प्रेरक इश्क़ तो है पर वह सिर्फ़ इश्क़ की नहीं, पूरे विवेक की शायरी है । फ़िराक़ की यह बौद्धिकता उन्हें औरों से अलग कराती है और उन्हें बड़ा शायर बनाती है। वे मेरे सबसे पसंदीदा कवियों में से हैं। पहले पेश हैं उनके कुछ शेर -
मेरा अक़ीदा है " दुनिया बनाम ख़ुल्दे-बरीं"
हज़ार शुक्र मुझे काबिशे-सवाब नहीं।
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं।
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हज़ार शुक्र मुझे काबिशे-सवाब नहीं।
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं।
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अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझसे
अब न बात ग़मे-हिज्र के अफ़सानों में ।
अब तेरा काम है बस अहले-वफ़ा का पाना
अब तेरा नाम है बस इश्क़ के ग़मखानों में।
अब न बात ग़मे-हिज्र के अफ़सानों में ।
अब तेरा काम है बस अहले-वफ़ा का पाना
अब तेरा नाम है बस इश्क़ के ग़मखानों में।
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यूँ तो हर इक का हुश्न काफ़िर है
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
हुश्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी नहीं मिलती।
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
हुश्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी नहीं मिलती।
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और अब उनकी नज़्म 'जुगनू' से कुछ लाईने जो उस माँ के लिए हैं जो उसके पैदा होते ही मर गई-
......सुकूत रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार
कभी-कभी तेरी पायल की आती है झंकार।
मैं जुगनू बनके तो तुझ तक पहुँच नहीं सकता
जो तुझसे हो सके ऐ माँ तू वो तरीक़ा बता।
तू जिसको पा ले वो कागज़ उछाल दूँ कैसे
ये नज़्म मैं तेरे कदमों में डाल दूँ कैसे !
(पूरी नज़्म फ़िर कभी)
आइये सुनते हैं जगजीत सिंह की आवाज़ में यह ग़ज़ल - ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात ....
अब इसी ग़ज़ल को तलत महमूद की आवाज़ में सुनते हैं-
अब इसी ग़ज़ल को तलत महमूद की आवाज़ में सुनते हैं-